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________________ ये उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का होता है, फिर प्रत्येक के दो-दो भेद हो जाते हैं, जैसे कि सानुनासिक और निरनुनासिक, इन छ भेदों के ह्रस्व, दीर्घ एवं प्लुत ऐसे अन्य भी तीन-तीन भेद हो जाते हैं। इस प्रकार 'अ' वर्ण के अठारह भेद बन जाते हैं। इसी प्रकार 'क' से लेकर 'ह' तक जितने व्यञ्जन हैं, उन के साथ मिलकर भी अठारह-अठारह भेद बन जाते हैं। घट, पट, कर, एवं सकल-शकल, मकर आदि जितने भी शब्द हैं, उन के साथ अकार के अठारह-अठारह भेद बन जाने से अनगिनत भेद बन जाते हैं। पदार्थ में अनन्त धर्म हैं, उन में जो अभिलाप्य हैं, वे अनन्तवें भाग मात्र हैं, वे अभिलाप्य वर्णात्मक हैं। जैसे घटादि पर्याय अकार से सम्बन्धित हैं। पुनः स्व-पर पर्याय की अपेक्षा से 'अ' कार सर्व द्रव्य पर्याय परिमाण कथन किया गया है। वृत्तिकार के इस विषय में निम्नलिखित शब्द हैं___“घटादि पर्याया अपि अकारस्य सम्बन्धिन इति स्व-पर पर्यायापेक्षया अकारः सर्वद्रव्यपर्याय-परिमाणः, एवमाकारदयोऽपि वर्णाः, सर्वे प्रत्येकं सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणा वेदितव्या, एवं घटादिकमपि प्रत्येकं सर्ववस्तुजातं परिभावनीयम्।" इस विषय को स्पष्ट करने के लिए आचारांग सूत्र में एक महत्वपूर्ण सूत्र है__ जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ। जो एक वस्तु की सर्व पर्यायों को जानता है, वह स्वपर्याय भिन्न अन्य वस्तुओं की सब पर्यायों को भी जानता है, जो सर्व पर्यायों को जानता है वह एक को भी जानता है। अतः केवलज्ञानवत् अकार आदि वर्ण भी सर्वद्रव्य परिमाण जानना चाहिए। घटादि पदार्थ स्व-पर्याय युक्त हैं और पट आदि पदार्थ उनसे भिन्न परपर्याय युक्त हैं, किन्तु अकार आदि वर्ण केवलज्ञान की सर्व पर्यायों का अनन्तवां भाग जानना चाहिए। वस्तुत: देखा जाए तो यहां अक्षर श्रुत का विषय है, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का परस्पर अविनाभावी सम्बन्ध है। इसलिए यहां दोनों ही ग्रहण किए गए हैं। अतः सर्व जीवों के अक्षर का अनन्तवां भाग खुला रहता है, जिसको श्रुतज्ञान कहा जाता है। यदि वह भी अनन्त कर्म वर्गणाओं से आवृत्त हो जाए, फिर तो जीव, अजीव के रूप में परिणत हो जाएगा। परन्तु ऐसा होता नहीं। जैसे बहुत सघन श्याम घटा से आच्छादित होने पर भी चन्द्र-सूर्य की प्रभा सर्वथा आवृत्त नहीं हो सकती, कुछ न कुछ प्रकाश रहता ही है। इसी प्रकार अनन्त ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म परमाणुओं से प्रत्येक आत्मप्रदेश आवेष्टित होने पर भी चेतना का सर्वथा अभाव नहीं होता, इसलिए कहा है-मतिपूर्वकश्रुत सर्वजघन्य अक्षर के अनन्तवें भागमात्र तो नित्य उद्घाटित रहता ही है। सूक्ष्म निगोद में रहे हुए जीव में भी श्रुत यत्किंचित् रहता ही है, वहां भी श्रुत या चेतना सर्वथा लुप्त नहीं होती। *420
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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