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________________ कारण कि व्यवच्छित्तिनय पर्यायास्ति का अपर नाम है, और अव्यवच्छित्तिनय द्रव्यार्थिक नय का पर्यायवाची नाम है। इस विषय में वृत्तिकार के शब्द निम्नलिखित हैं। जैसे कि___"इत्येतद्वादशांगं गणिपिटकं, वोच्छित्तिनयट्ठयाए, इत्यादि व्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयो व्यवच्छित्तिनयः पर्यायार्थिकनय इत्यर्थः तस्यार्थो व्यवच्छित्तिनयार्थः पर्याय इत्यर्थः, तस्य भावो व्यवच्छित्तिनयार्थता, तया पर्यायापेक्षयेत्यर्थः, किमित्याह-सादि-सपर्यवसितं नारकादिभवपरिणत्यपेक्षया जीव इव अवोच्छित्तिनयट्ठयाए, त्ति अव्यवच्छित्ति प्रतिपादनपरो नयोव्यवच्छितिनयोऽव्यवच्छित्तिनयस्तस्यार्थोऽव्यवच्छित्तिनयाओं द्रव्यमित्यर्थः, तद्भावस्ततःतया द्रव्यार्थिकापेक्षया इत्यर्थः, किमित्याह अनादि अपर्यवसितत्रिकालावस्थायित्वाज्जीवम्।" __ इस का भावार्थ पहले लिखा जा चुका है। उस श्रुतज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चार भेद किए गए हैं। द्रव्यतः-एक जीव की अपेक्षा से सम्यक्श्रुत सादि-सान्त है। जब सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, तब सम्यक्श्रुत की आदि और जब वह तीसरे या पहले गुणस्थान में प्रवेश कर जाता है तब मिथ्यात्व के उदय होने के साथ ही सम्यक्श्रुत भी लुप्त हो जाता है, जब प्रमाद के कारण, मनोमालिन्य से, महावेदना उत्पन्न होने से, विस्मृति से अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने से सीखा हुआ श्रुतज्ञान लुप्त हो जाता है, तब उस पुरुष की अपेक्षा से सम्यक्श्रुत सान्त हो जाता है। तीनों काल की अपेक्षा अथवा बहुत पुरुषों की अपेक्षा अनादि अनन्त हैं, क्योंकि ऐसा कोई समय न हुआ, और न होगा जब सम्यक्श्रुत वाले ज्ञानी जीव न हों। सम्यक्श्रुत द्वादशांगवाणी सादि है, भव बदलने से तथा उपर्युक्त कारणों से वह सम्यग्वाणी सान्त है। क्षेत्रतः-पांच भरत, पांच ऐरावत इन दस क्षेत्रों की अपेक्षा गणिपिटक सादि सान्त है, क्योंकि अवसर्पिणी के सुषमदुषम के अन्त में और उत्सर्पिणीकाल में दुःषमसुषम के प्रारंभ में तीर्थंकर भगवान सर्वप्रथम धर्मसंघ स्थापनार्थ द्वादशांगगणिपिटक की प्ररूपणा करते हैं। उसी समय सम्यक्श्रुत का प्रारंभ होता है। इस अपेक्षा से सादि, तथा दु:षमदुःषम आरे में सम्यक् श्रुत का व्यवच्छेद हो जाता है, इस अपेक्षा से सम्यक्श्रुत गणिपिटक सान्त है। किन्तु पांच महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा गणिपिटक अनादि अनन्त है। महाविदेह क्षेत्र में सदा-सर्वदा सम्यक्श्रुत का सद्भाव पाया जाता है। कालत:-काल से जहां उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल वर्तते हैं, वहां सम्यक्श्रुत गणिपिटक सादि सान्त है, क्योंकि कालचक्र के अनुसार ही धर्म प्रवृत्ति होती है। पांच महाविदेह में 160 विजय हैं, उन में न उत्सर्पिणी काल है और न अवसर्पिणी, इस अपेक्षा से द्वादशांग गणिपिटक अनादि-अनन्त है, क्योंकि महाविदेह क्षेत्रों में उक्त कालचक्र की प्रवृत्ति नहीं होती, वहां सदैव सम्यक्श्रुत अवस्थित रहता है, इसलिए वह अनादि अनन्त है। भावतः-जिस तीर्थंकर ने जो भाव वर्णन किए हैं, उन की अपेक्षा सादि-सान्त है, किन्तु - *418*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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