SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पकड़ लिया। अपने पकड़े जाने पर वरधनु ने जोर से शब्द किया, जिसका संकेत पाकर राजकुमार भाग गया। राजपुरुषों ने वरधनु से राजकुमार का पता पूछा। परन्तु उसने कुछ न बताया तो उसे मारना-पीटना आरम्भ किया; जिससे वह निश्चेष्ट होकर गिर पड़ा। राजपुरुष उसे मरा समझकर वहां से चले गए। राजपुरुषों के चले जाने पर वरधनु वहां से उठा और राजकुमार को ढूंढने लगा, पर उसका कहीं पर पता न लगा और अपने सम्बन्धियों को मिलने के लिये वापिस घर पर आ गया। मार्ग में उसे संजीवन और निर्जीवन नामक दो ओषधियां मिलीं। कम्पिलपुर के पास जब वह पहुंचा तो उसे एक चाण्डाल मिला, जिसने वरधनु को बतलाया कि तुम्हारे परिवार के सभी व्यक्तियों को राजा ने बन्दी बना लिया है। यह सुनकर चाण्डाल को प्रलोभन देकर अपने वश करके उसे निर्जीवन ओषधि दी ओर शेष संकेत समझा दिये। आदेशानुसार चाण्डाल ने निर्जीवन ओषधि कुटुम्ब के मुखिया को दी और उसने अपने सभी कुटुम्ब की आंखों में उसे आंज दिया, जिससे वे तत्काल निर्जीव सदृश हो गये। मरा जान कर राजा ने चाण्डाल को उन्हें श्मशान में ले जाने की आज्ञा दी और वह वरधनु के सांकेतिक स्थान पर रख आया। वरधनु ने आकर उन सबकी आंखों में संजीवन ओषधि को आंजा और तत्काल सभी स्वस्थ होकर बैठ गये। वरधनु को अपने बीच देख वे बहुत प्रसन्न हुए। वरधनु ने सारा वृत्तान्त उनसे कहा और उनको अपने किसी सम्बन्धी के घर छोड़ कर स्वयं राजकुमार की खोज में निकला। बहुत दूर कहीं जंगल में राजकुमार को ढूंढ लिया। दोनों वहां से चले और अनेक राजाओं के साथ युद्ध करते हुए आगे बढ़ने लगे। अनेक कन्याओं से विवाह किया और छः खण्ड को जीत कर कम्पिलपुर में आये तथा दीर्घपृष्ठ को मार कर स्वयं राज्य को संभाला। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की ऋद्धि का उपभोग करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगा। मन्त्रीपुत्र वरधनु ने ब्रह्मदत्त तथा अपने कुटुम्ब की पारिणामिकी बुद्धि से रक्षा की। . १२. चाणक्य-पाटलिपुत्र के राजा नन्द ने कुपित होकर चाणक्य नामक ब्राह्मण को अपने नगर से निकल जाने की आज्ञा दी। चाणक्य संन्यासी का वेष धारण कर वहां से चल पड़ा और घूमता-फिरता हुआ मौर्य ग्राम में जा पहुंचा। उस ग्राम की किसी क्षत्राणी को चन्द्रपान का दौहद उत्पन्न हुआ था। उसका पति असमञ्जस में पड़ गया कि किस प्रकार स्त्री की भावना पूरी की जाये? दोहला पूरा न होने से उसकी स्त्री प्रतिदिन दुर्बल होने लगी। एक दिन संन्यासी के वेष में घूमते हुए चाणक्य से क्षत्रिय ने पूछा, तब चाणक्य ने स्त्री का दोहला पूरा कर देने का वचन दिया। तत्पश्चात् ग्राम के बाहर एक मण्डप बनवाया, उसके ऊपर एक वस्त्र तान दिया गया। चाणक्य ने उस वस्त्र में चंद्राकार छिद्र निकाला और पूर्णिमा की रात्रि को छिद्र के नीचे थाली में पेय-पदार्थ रख दिया तथा क्षत्राणी को भी बुला लिया। जब चन्द्र उस छिद्र के ऊपर आया और उसका प्रतिबिम्ब थाली में पड़ने लगा तब चाणक्य ने स्त्री से कहा-"लो, यह चन्द्र है, इसे पी जाओ।" स्त्री प्रसन्नता से उसे पीने लगी, जैसे ही वह पी चुकी, ऊपर से छिद्र पर कपड़ा डाल कर बन्द कर दिया। चन्द्र का प्रकाश आना भी बन्द हो गया तो क्षत्राणी ने भी समझ लिया कि मैं वास्तव में चन्द्रपान कर गयी हूं। अपने दौहद को *340* -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy