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के लिये लाक्षागृह निर्माण करने का निश्चय किया तथा जब कुमार अपनी पत्नी सहित उस लाक्षागृह में सोने के लिये जाये तो उसमें आग लगा दी जाए, जिससे मार्ग निष्कण्टक हो जाए। कामान्ध रानी ने दीर्घपृष्ठ की बात को मान कर लाक्षागृह बनवाया और पुष्पचूल की कन्या से कुमार का विवाह कर दिया।
मन्त्री धनु को रानी और दीर्घपृष्ठ के षड्यन्त्र का पता चल गया। वह दीर्घपृष्ठ के पास जाकर कहने लगा-“स्वामिन्! मैं अब बूढ़ा हो गया हूं, शेष जीवन भगवद्भक्ति में व्यतीत करने की भावना है। मेरा पुत्र वरधनु अब सर्व प्रकार से योग्य हो गया है। अब आपकी सेवा वही करेगा। यह निवेदन कर मन्त्री वहां से चला गया और गंगा के किनारे दानशाला खोल कर दान देने लगा। दानशाला के बहाने उसने विश्वस्त पुरुषों से लाक्षागृह तक सुरंग खुदवाई और साथ ही राजा पुष्पचूल को भी समाचार दे दिया । लाक्षागृह और विवाह सम्पन्न होने पर रात्रि के समय राजकुमार को उस घर में भेजा गया । तदनन्तर अर्ध रात्रि के समय उस घर में आग लगा दी गयी, जो शीघ्र ही चारों ओर फैलने लगी । कुमार ब्रह्मदत्त ने जब आग को देखा तो वरधनु मंत्री से पूछा - " यह क्या बात है ? " वरधनु ने रानी और दीर्घपृष्ठ का सारा षड्यंत्र कुमार को बतला दिया और कहा - " कुमार ! आप घबरायें नहीं, मेरे पिता ने इस लाक्षागृह के नीचे सुरंग खुदवाई है जो गंगा के किनारे पर निकलती है, वहां दो घोड़े तैयार हैं जो आपको वहां से अभीष्ट स्थान पर ले जायेंगे। यह कह कर वे वहां से निकल गये और घोड़ों पर सवार होकर अनेक देशों में भ्रमण करने लगे। कुमार ब्रह्मदत्त ने अपने बुद्धिबल से वीरता के अनेक कार्य किये और कई राजकन्याओं से विवाह किये तथा षट्खण्ड जीतकर चक्रवर्ती बने। धनु मन्त्री ने पारिणामिकी बुद्धि से लाक्षागृह के नीचे सुरंग बनवा कर राजकुमार ब्रह्मदत्त की रक्षा की।
१०. क्षपक- किसी समय एक तपस्वी साधु पारणे के दिन भिक्षा के लिये गया। लौटते समय मार्ग में उसके पैर के नीचे एक मेंढक आया और दब कर मर गया। शिष्य ने यह देख गुरु से शुद्धि करने के लिये प्रार्थना की किन्तु शिष्य की बात पर तपस्वी ने ध्यान न दिया । सायंकाल प्रतिक्रमण के समय शिष्य ने गुरु को मेंढक के मरने की बात याद कराई और प्रायश्चित्त लेने को कहा । परन्तु यह सुन कर तपस्वी को क्रोध आ गया और शिष्य को मारने के लिए उठा। मकान में अंधेरा था । अत: क्रोध के वशीभूत होकर कुछ भी दिखाई नहीं दिया और जोर से स्तम्भ के साथ जा टकराया, टकराते ही तपस्वी की मृत्यु हो गई । मर कर वह तपस्वी ज्योतिषी देवों में उत्पन्न हुआ। वहां से च्यव कर दृष्टि-विष सर्प बना और जातिस्मरण ज्ञान से अपने पूर्व जन्म को देखा। तब वह पश्चात्ताप करने लगा कि मेरी दृष्टि से किसी प्राणी की घात न हो जाये। अतः वह प्रायः बिल में ही रहने लगा।
एक समय किसी राजपुत्र को किसी सांप ने काट खाया, जिससे तत्काल ही वह मर गया। इस कारण राजा को क्रोध आया और गारुड़ियों को बुला कर राज्य भर के सर्पों को पकड़ कर मारने की आज्ञा दी । सर्प पकड़ते समय वे उस दृष्टिविष के पास पहुंच गये और
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