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१४. संख्याद्वार-जघन्य एक समय में एक सिद्ध हो, उत्कृष्ट एक सौ आठ सिद्ध हों। इससे अधिक नहीं होते।
१५. अल्पबहुत्वद्वार-एक समय में दो, तीन सिद्ध होने वाले स्वल्प जीव हैं। उनसे एक सिद्ध होने वाले संख्यात गुणा हैं।
२. द्रव्यद्वार १. क्षेत्रद्वार-ऊर्ध्वदिशा में एक समय में चार सीझें। जैसे कि निषधपर्वत और मेरु आदि के शिखर तथा नन्दनवन में से चार, नदी नालों में तीन, समुद्र में दो, पण्डकवन में दो, तीस अकर्मभूमि क्षेत्रों में से प्रत्येक में दस-दस, ये सब साहरण की अपेक्षा से समझने चाहिएं। प्रत्येक विजय में जघन्य 20, उत्कृष्ट 108, पन्द्रह कर्मभूमि क्षेत्रों में एक समय में उत्कृष्ट 108 सिद्ध हो सकते हैं। उपर्युक्त सभी क्षेत्रों में अधिक से अधिक एक समय में 108 आत्माएं.सिद्ध हो सकती हैं, अधिक नहीं। ___२. कालद्वार-अवसर्पिणी काल के तीसरे और चौथे आरे में एक समय में अलग-अलग उत्कृष्ट 108, पांचवें आरे मे 20 सिद्ध हो सकते हैं। उत्सर्पिणी काल के तीसरे और चौथे आरे में भी पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। शेष सात आरों में एक समय में दस-दस सिद्ध हों, वह भी साहरण की दृष्टि से ही ऐसा हो सकता है। वैसे तो उन आरों में तज्जन्य आश्रयी सिद्ध नहीं होते।
३. गतिद्वार-रत्नप्रभा, शर्करप्रभा और वालुकाप्रभा नरक से निकले हुए एक समय में दस सीझें। पंकप्रभा से निकले हुए चार, समुच्चय तिर्यञ्च से निकले हुए दस, संज्ञी तिर्यञ्च से दस, तिर्यञ्च से निकले हुए दस। विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी तिर्यक्पञ्चेन्द्रिय से निकले हुए मनःपर्यवज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु सिद्ध नहीं होते। पृथ्वी, अप् से आए हुए दो, वनस्पति से छः, मनुष्यगति से आए हुए बीस, पुल्लिंग से निकले हुए बीस, स्त्री से दस, देवगति से आए हुए एक सौ आठ सिद्ध हों। भवनपति से दस, उनकी देवी से आए पांच, वाणव्यन्तर से दस, देवी से पांच, ज्योतिषी देवों से दस, देवियों से बीस और वैमानिक देवों से आए हुए एक समय में 108, उनकी देवियों से आए हुए एक समय में 20 सिद्ध हो सकते
४. वेदद्वार-एक समय में स्त्री 20, पुरुष 108 और नपुंसक 10 सिद्ध हो सकते हैं। पुरुष मर कर पुरुष बनकर 108 सिद्ध हो सकते हैं। शेष' आठ भागों में दस-दस हो सकते हैं।
1. 1. पुरुष मर कर स्त्री, 2. पुरुष मर कर नपुंसक, 3. स्त्री मर कर स्त्री, 4. स्त्री मर कर पुरुष, 5. स्त्री मर कर नपुंसक, 6. नपुंसक मर कर स्त्री, 7. नपुंसक मर कर पुरुष, 8. नपुंसक मर कर नपुंसक। . .
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