SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धिज्ञानं नावश्यंभावि, ततः समानेऽपि क्षायोपशमिकत्वे भवप्रत्ययादिदं भिद्यते, परमार्थतः पुनः सकलमप्यवधिज्ञानं क्षायोपशमिकम् । " इस का आशय उपर्युक्त है। हां देव नारकों को भवप्रत्यय अवधिज्ञान अवश्यमेव होता है। परमार्थ से सभी प्रकार के अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में होते हैं। सूत्र में 'च' शब्द पुन: पुनः आया है, उसका अर्थ है - यह स्वगत देव, नारकादि आश्रित दोनों भेदों का सूचक है, प्रत्यय शब्द शपथ, ज्ञान, हेतु, विश्वास और निश्चय अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसे कि "प्रत्यय, शपथे, ज्ञाने, हेतु, विश्वास - निश्चये " सूत्र में जो को हेऊ खाओवसमिअं ? यह पद दिया है। इस प्रश्न से ही यह निश्चित हो जाता है कि अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में है। अतः इसके उत्तर में सूत्रकार ने स्वयं ही वर्णन किया है। जैसे खाओवसमियं तयावरणिज्जाणं कम्माणं उदिण्णाणं खएणं, अणुदिण्णाणं उवसमेणं ओहिनाणे समुपज्जइ - अत्र निर्वचनमभिधातुकाम आह- क्षायोपशमिकं येन कारणेन तदावरणीयानाम्-अवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणामुदीर्णानां क्षयेण अनुदीर्णानाम्उदयावलिकामप्राप्तानामुपशमेन - विपाकोदयं विष्कम्भणलक्षणेनावधिज्ञानमुत्पद्यते, तेन कारणेन क्षायोपशमिकमित्युच्यते।" अर्थात् अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षय व उपशम होने से अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है। केवल ज्ञान के अतिरिक्त चार ज्ञान क्षयोपशम भाव में होते हैं। ।। सूत्र 5-6-7-8।। अवधिज्ञान के छ: भेद मूलम् - अहवा गुणपड़िवन्नस्स अणगारस्स ओहिनाणं समुप्पज्जइ, तं समासओ छव्विहं पण्णत्तं, तंजहा " १. आणुगामियं २. अणाणुगामियं, ३. वडमाणयं, ४. हीयमाणयं, ५. पडिवाइयं, ६. अप्पडिवाइयं ॥ सूत्र ९ ॥ छाया-अथवा गुणप्रतिपन्नस्याऽनगारस्याऽवधिज्ञानं समुत्पद्यते, तत्समासतः षड्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा १. आनुगामिकम्, २. अनानुगामिकं, ३. वर्द्धमानकं, ४. हीयमानकं, ५. प्रतिपातिकम्, ६. अप्रतिपातिकम् ॥ सूत्र ९ ॥ पदार्थ-अहवा-अथवा, गुणपडिवन्नस्स - गुणप्रतिपन्न, अणगारस्स - अनगार को, ओहिनाणं-अवधिज्ञान, समुप्पज्जइ- समुत्पन्न होता है, तंजहा- जैसे, आणुगामियंआनुगमिक, अणाणुगामियं - अनानुगामिक, वड्ढमाणयं - वर्द्धमान, हीयमाणयं - हीयमान, पडिवाइथं - प्रतिपातिक, अप्पडिवाइयं- अप्रतिपातिक । * 189
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy