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5. जो ज्ञान इतना महान है कि जिससे बढ़कर अन्य कोई ज्ञान न हो, जो अनन्त-अनन्त पदार्थों को जानने की शक्ति रखता है अथवा जो ज्ञान उदय होने पर कभी भी अस्त न हो, उसे केवल ज्ञान कहते हैं।
6. जो ज्ञान निरावरण, नित्य और शाश्वत् हो, जिसका अन्त न होने वाला हो, वही केवलज्ञान है। ____7. क्षायोपशमिक ज्ञान राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह के अंश से खाली नहीं हैं। किन्तु इनसे सर्वथा रहित ज्ञान को केवल ज्ञान कहते हैं।
पांच प्रकार के ज्ञान में पहले दो ज्ञान परोक्ष हैं, अन्तिम तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। मति शब्द ज्ञान और अज्ञान दोनों के लिए प्रयुक्त होता है, किन्तु आभिनिबोधिक शब्द ज्ञान के लिए ही प्रयुक्त होता है, अज्ञान के लिए नहीं। इसी कारण सूत्रकार ने आभिनिबोधिक शब्द प्रयुक्त किया है।
श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-1. अर्थ-श्रुत और 2. सूत्र-श्रुत। अर्हन्तदेव केवलज्ञान के द्वारा जिन पदार्थों को जानकर प्रवचन करते हैं, उसे अर्थ-श्रुत कहते हैं। उसी प्रवचन को जब गणधर देव सूत्ररूप में गुम्फित करते हैं, तब उसे सूत्रश्रुत कहते हैं। क्योंकि सूत्र की प्रवृत्ति शासनहित के लिए ही होती है। जैसे कहा भी है
“अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं।
सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तइ ॥". तीर्थंकर भगवन अर्थ प्रतिपादन करते हैं और गणधर शासनहित, मानवहित तथा प्राणीहित को दृष्टिगोचर रखते हुए उस अर्थ को सूत्ररूप में गूंथते हैं। सूत्रागम में जो भाव या अर्थ हैं, वे गणधरों के नहीं, तीर्थंकर के हैं। द्वादशांग गणिपिटक' शब्द रूप में गणधरकृत है और अर्थ रूप में तीर्थंकरकृत। जो ज्ञान अक्षर के रूप में परिणत हो सके, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं ।। सूत्र 1 ।।
प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण मूलम्-तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-पच्चक्खं च परोक्खं च ॥ सूत्र २॥
छाया-तत्समासतो द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-प्रत्यक्षञ्च, परोक्षञ्च ॥ सूत्र २ ॥
भावार्थ-पांच प्रकार का होने पर भी वह ज्ञान संक्षेप में दो प्रकार का वर्णित है, जैसे-1. प्रत्यक्ष और 2. परोक्ष ।। सूत्र 2 ।।
टीका-इस सूत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान का वर्णन किया गया है। पांच ज्ञान संक्षेप
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