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के लिए घी के घट भरकर बैलगाड़ी तैयार करके दूसरे नगर की ओर प्रस्थान कर गए। नगर में जो घी की मंडी थी, वहां बैलगाड़ी को रोका। अहीर ने गाड़ी से घड़े उतारने शुरू किए और अहीरनी नीचे लेने लगी। दोनों की असावधानी से अकस्मात् का घृतघट गिर पड़ा। जिससे अधिकतर घी जमीन में मिट्टी से लिप्त हो गया। इस पर दोनों झगड़ने लगे। अहीर कहने लगा कि - तूने ठीक तरह से घड़ा क्यों नहीं पकड़ा ? उसकी पत्नी कहने लगी- मैं तो घड़े को लेने वाली थी, घड़ा अभी तक पकड़ा ही नहीं था इतने में आपने छोड़ दिया, इससे घड़ा गिर पड़ा। इस तरह दोनों में वाद-विवाद बहुत देर तक होता रहा । सारा घी अग्राह्य हो गया और जानवर चट कर गए। कुछ कलह में, कुछ घी के बिकने में अधिक विलंब हो जाने से सायंकाल हैरानी-परेशानी के साथ वे अपने घर की ओर लौटे । मार्ग में उन्हें चोरों ने लूट लिया, वे जान बचाकर खाली हाथ घर पहुंचे। यह पारस्परिक द्वन्द्व का अशुभ परिणाम है। इसके प्रतिपक्ष
इसी प्रकार उसी गांव की दूसरी अहीर दम्पति भी घी बेचने के लिए नगर में पहुंचकर घी मंडी में बैलगाड़ी से क्रमश: घी के घड़े उतारने में तत्पर हुई। असावधानी से अहीरनी से घड़ा गिर गया, वह पति से कहने लगी- " पतिदेव ! मेरे से भूल हो गई, अच्छी तरह पकड़ नहीं सकी, यह भूल मेरी है आपकी नहीं, अतः मुझे क्षमा कर दीजिए ।" इस प्रकार शांतभाव से पति को संतुष्ट किया और दोनों शीघ्र ही मौनरूप से गिरे हुए घी को समेटने लगे, जिससे बहुत-कुछ घी सुरक्षित बचा लिया। जो घी मिट्टी में मिल गया था, उसे एकत्रित करके जैसे-तैसे निकाल लिया। घी बेचकर सूर्यास्त होने से पहले-पहले सुरक्षित अपने घर पहुंच
गए।
इसका निष्कर्ष यह निकला - जो शिष्य सूत्रार्थ को ग्रहण किए बिना आचार्य के कहने पर कलह करने लग जाते हैं, वे श्रुतज्ञानरूपी घी खो बैठते हैं, ऐसे शिष्य श्रुत के अयोग्य एवं अनधिकारी हैं। जो सूत्र तथा अर्थ ग्रहण करते समय भूल-चूक हो जाने पर, आचार्य के द्वारा प्रेरणा करने पर अपनी भूल स्वीकार करके क्षमा याचना करते हैं और गुरुदेव को सन्तुष्ट करके पुन: सूत्रार्थ ग्रहण करते हैं, वे शिष्य श्रुतज्ञान के अधिकारी और सुपात्र होते हैं।
तीन प्रकार की परिषद्
श्रोताओं के समूह को परिषद् या सभा कहते हैं, इसके विषय में शास्त्रकार कहते हैंमूलम्-सा समासओ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा- जाणिया, अजाणिया, दुव्वियड्ढा । जाणिया जहा
खीरमिव जहा हंसा, जे घुट्टति इह गुरु-गुण-समिद्धा । दोसे अ विवज्जंति, तं जाणसु जाणियं परिसं ॥ ५२ ॥
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