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टीका-इस गाथा में महामनीषी, बहुश्रुत, युगप्रधान अनुयोगरक्षक
(25) श्री स्कन्दिलाचार्य ने अपने जीवन में क्या विशेष कार्य किया, इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है। आचार्य स्कन्दिल ने संकटकाल में भी अनुयोग की रक्षा की। आज इस अर्द्धभरत क्षेत्र में जो अनुयोग प्रचलित है, यह उनके परिश्रम का ही मधुर फल है।
जब भरत क्षेत्र में दूसरा बारह वर्षीय दुर्भिक्ष पड़ा, उसमें बहुत-से अनुयोगधर मुनि देवलोक हो गए। दुर्भिक्ष के हट जाने पर उन्होंने मथुरापुरी में अनुयोग की प्रवृत्ति की, इसलिए वर्तमानकाल में अनुयोग को माथुरी-वाचना भी कहते हैं। कतिपय आचार्यों का यह अभिमत है कि स्कन्दिलाचार्य के समय में एतावन्मात्र ही अनुयोग रह गया था, उसी का उन्होंने संग्रह किया। तथा कतिपय आचार्यों की मान्यता है कि दुर्भिक्ष के पश्चात् सुभिक्ष होने पर मथुरापुरी में स्कन्दिलाचार्य प्रमुख श्रमण-संघ ने मिलकर जो जिस की स्मृति में था वह सर्वश्रुत एकत्रित करके उसका अनुसंधान किया। वृत्तिकार ने इस विषय को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है। जिज्ञासुओं के जानने के लिए हम अक्षरशः इस स्थान पर वृत्ति उद्धृत करते हैं
"येषामयं-श्रवणप्रत्यक्षत उपलभ्यमानोऽनुयोगोऽद्यापि अर्द्धभरतवैताढ्यादाक् 'प्रचरति' व्याप्रियते तान् स्कन्दिलाचार्यान् सिंहवाचकसूरिशिष्यान् बहुषु नगरेषु निर्गतं-प्रसृतं यशो येषां ते बहुनगरनिर्गतयशसस्तान् वन्दे। अथायमनुयोगोऽर्द्धभरते व्याप्रियमाणः कथं तेषां स्कन्दिलनाम्नामाचार्याणां सम्बन्धी ? उच्यते-इह स्कन्दिलाचार्यप्रतिपत्तौ दुषमसुषमाप्रतिपन्थिन्याः तद्गतसकलशुभभावग्रसनैकसमारम्भायाः दुःषमायाः साहायकमाधातुं परमसुहृदिव द्वादशवार्षिकं दुर्भिक्षमुदपादि, तत्रचैवंरूपे महातिदुर्भिक्षे भिक्षालाभस्यासंभवादवसीदतां साधूनामपूर्वार्थ ग्रहण पूर्वार्थ स्मरणश्रुतपरावर्त्तनानि मूलत एवापजग्मुः श्रुतमपिचातिशायि प्रभूतमनेशत्, अंगोपांगादिगतपमि भावतो विप्रनष्टम् तत्परावर्त्तनादेरभावात् ततो द्वादशवर्षानन्तरमुत्पन्ने सुभिक्षे मथुरापुरि स्कन्दिलाचार्यप्रमुखश्रमणसंघेनैकत्र मिलित्वा यो यत्स्मरति स तत्कथयतीत्येवं कालिकश्रुतं पूर्वगतं च किंचिदनुसन्धाय घटितं, यतश्चैतन्मथुरापुरि संघटितमत इयं वाचना माथुरीत्यभिधीयते, सा च तत्कालयुगप्रधानानां, स्कन्दिलाचार्याणमभिमता, तैरेव चार्थतः शिष्यबुद्धिं प्रापितेति, तदनुयोग- स्तेषामाचार्याणां सम्बन्धीति व्यपदिश्यते।
अपरे पुनरेवमाहुः-न किमपि श्रुतं दुर्भिक्षवशात् अनेशत् किन्तु तावदेव तत्काले श्रुतमनुवर्त्तते स्म, केवलयमन्ये प्रधाना येऽनुयोगधरास्ते सर्वेऽपि दुर्भिक्षकालकवलीकृताः, एक एव स्कन्दिलसूरयो विद्यन्ते स्म, ततस्तैदुर्भिक्षापगमे मथुरापुरि पुनरनुयोगः प्रवर्त्तित, इति वाचना माथुरीति व्यपदिश्यते, अनुयोगश्च तेषामाचार्याणामिति।"
इसका सारांश पहले लिखा जा चुका है।