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________________ में संलग्न रहते, कुछ ग्लान तथा स्थविरों की सेवा में संलग्न रहते, किसी में अधिक सीखने की अरुचि पाई जाती थी, कोई बुद्धि की मन्दता से जितना चाहता, उतना ग्रहण नहीं कर सकता था। लघुवयस्क, कुशाग्र बुद्धि गम्भीर आगमज्ञान सीखने में अधिक रुचि वाला, प्रमाद तथा विकथाओं से निवृत्त, नीरोगकाय एवं दीर्घायुष्क आत्मा, निश्चय ही वेत्ता बन सकता है, ऐसे होनहार मुनिवरों की न्यूनता, पूर्वो तथा अन्य आगमों के व्यवच्छेद में कारण बने। ६. सम्प्रदायवाद का उद्गम ___ जो संघ पहले एक धारा के रूप में बह रहा था, उसकी दो धाराएं वीर नि.सं. 609 के वर्ष में बन गईं। आर्यकृष्ण के शिष्य शिवभूति ने दिगम्बरत्व की बुनियाद डाली। जो स्थविरकल्पी थे, वे श्वेताम्बर कहलाए, जो पहले कभी जिनकल्पी थे, वे अपने आपको दिगम्बर कहलाने लगे। संघ का बंटवारा हो जाने से पारस्परिक विद्वेष, निन्दा एवं पैशुन्य बढ जाने से सहधर्मी-वत्सलता के स्थान में कलह ने अपना अड्डा बना लिया। संप्रदाय के संघर्ष से भी संघ को बहुत हानि उठानी पड़ी। ऐसे अनेकों ही कारण बन गए, हो सकता है इनके अतिरिक्त आगमों के ह्रास में अन्य भी अज्ञात कारण हों, क्योंकि जहां हृदय में वक्रता और बुद्धि में जड़ता हो, वहां संघ में सुव्यवस्था नहीं रह सकती। अनधिकारी की महत्त्वाकांक्षा, प्रवचन-प्रभावना की न्यूनता, आज्ञा विरुद्ध प्रवृत्ति, धारणा शक्ति की दुर्बलता, दुष्काल का प्रकोप, हुण्ड-अवसर्पिणी, तथा भस्मराशि महाग्रह का दुष्प्रभाव, विस्मृतिदोष, विकथा व प्रमाद की वृद्धि, भ्रातृत्व, मैत्री और वत्सलता की हीनता आदि अनेक कारणों से दृष्टिवाद सर्वथा तथा यत्किंचिद्रूपेण अंग सूत्रों के अंश भी व्यवच्छिन्न हो गए। कुछ लिपिबद्ध होने के बाद भी आततायियों के युगों में व्यवच्छिन्न हो गए। ये हैं आगमों के ह्रास में मुख्य-मुख्य कारण। नन्दीसूत्र का ग्रन्थाग्र और वृत्तियां वर्ण छन्दों में एक अनुष्टुप् श्लोक होता है, जिसमें प्राय: बत्तीस अक्षर होते हैं। ऐसे 700 अनुष्टुप् श्लोकों के परिमाण जितना नन्दीसूत्र का परिमाण है। यद्यपि इस सूत्र में गद्य की बहुलता है, पद्य तो बहुत ही कम है, तदपि नन्दीजी में जितने अक्षर हैं, यदि उन अक्षरों के अनुष्टुप् श्लोक बनाए जाएं, तो 700 बन सकेंगे। इसलिए इस सूत्र का ग्रन्थाग्र 700 श्लोक परिमाण है। आगमों पर लिखी गई सब से प्राचीन व्याख्या नियुक्ति है। आगमों पर जितनी नियुक्तियां मिलती हैं, वे सब पद्य में हैं और उनकी भाषा प्राकृत है। नियुक्ति के आद्य-प्रणेता भद्रबाहु स्वामीजी माने जाते हैं। नियुक्तियों से पूर्व अन्य किसी वृत्ति का उल्लेख नहीं मिलता। नियुक्ति में प्रत्येक अध्ययन की भूमिका तथा अन्य अनेक विचारणीय विषयों को बहुत कुछ * 98*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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