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यद्यपि कारण का कारण नहीं होता, तथापि व्यवहार - नय से ऐसा कहा गया है।' कारण यह है कि जब अष्टविध कर्मों का क्षय हो जाता है, तब मोक्षमार्ग की ज्ञानादि गति उत्पन्न होती है और उस गति के द्वारा ही मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है, इसलिए 'मोक्ष मार्ग की गति' यह कथन किया गया है, जो कि युक्तिसंगत है। इससे प्रमाणित हो जाता है कि मोक्ष मार्ग की गति चार कारणों से युक्त है और ज्ञान तथा दर्शन उसका स्वरूप लक्षण है तथा जिनभाषित होने से वह प्रामाणिक और सप्रयोजन है। अब मार्ग के विषय में कहते हैं -
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नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । एस मग्गुत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ॥ २ ॥ ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं च तपस्तथा । एष मार्ग इति प्रज्ञप्तः, जिनैर्वरदर्शिभिः ॥ २ ॥
पदार्थान्वयः-नाणं-ज्ञान, च- और, दंसणं-दर्शन, च- समुच्चय अर्थ में है, एव - निश्चयार्थ में है, चरितं - चारित्र, तह- उसी प्रकार, तवो-तप, च- पुनः, एस - यह, मग्गुत्ति-मार्ग, इस प्रकार, पन्नत्तो - प्रतिपादन किया हैं, वरदंसिहिं- प्रधानदर्शी, जिणेहिं - जिनेन्द्र देवों ने।
मूलार्थ - प्रधानदर्शी जिनेन्द्र देवों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों को मोक्ष का मार्ग प्रतिपादन किया है।
टीका - जिसके द्वारा पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का बोध हो, उसे ज्ञान कहते हैं। तात्पर्य यह है कि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमभाव से जो मत्यादि ज्ञान उत्पन्न होते हैं, वह ज्ञान है तथा दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशमभाव से जो सामान्य ज्ञान उत्पन्न होता वह दर्शन है। इसी प्रकार चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से जो सामायिक आदि चारित्र की उपलब्धि होती है वह चारित्र है, एवं पुरातन कर्मों का क्षय करने के लिए द्वादश प्रकार की जो तपश्चर्या वर्णन की गई है वही तप है। इस प्रकार कैवल्यदर्शी-प्रधानद्रष्टा जिनेन्द्र देवों ने ये पूर्वोक्त चार मोक्ष के कारण बताए हैं, अर्थात् सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप, इन चारों के द्वारा मोक्ष की उपलब्धि हो सकती है।
यद्यपि मूल गाथा में सम्यक् पद का उल्लेख नहीं है तथापि 'वरदर्शि - प्रतिपादित' ऐसा कहने से, संशय, विपर्यय और अनध्यवसायात्मक मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर परिशेष में सम्यक् ज्ञानादि ही लिए जाते हैं तथा चारित्र से पृथक् जो तप का ग्रहण किया है उसका तात्पर्य कर्म-क्षय के लिए तप को प्रधानता देना है, अर्थात् तप के द्वारा कर्मों का विशेष क्षय होता है। एवं 'जिन' इस शब्द के ग्रहण से मोक्षमार्ग की सप्रयोजनता सिद्ध की गई है।
अब मोक्ष के उक्त चारों कारणों के अनुसरण का फल वर्णन करते हैं, यथा नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गइं ॥ ३ ॥
१. 'व्यवहारतः कारणस्यापि कारणत्वाभिधानाददोषः '।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ७३] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
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