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है और आत्मा की धर्म में स्थिरता होने से अन्य जीवों को भी धर्म में स्थिर करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। जब स्वाध्याय कर चुके तो फिर मुनि क्या करे, अब इस विषय में कहते हैं यथा -
पोरिसीए चउब्भाए, वन्दित्ताण तओ गुरुं । पडिक्कमित्ता कालस्स, सेज्जं तु पडिलेहए ॥ ३८ ॥
पौरुष्याश्चतुर्भागे, वन्दित्वा ततो गुरुम् ।
प्रतिक्रम्य कालस्य, शय्यां तु प्रतिलेखयेत् ॥ ३८ ॥ __ पदार्थान्वयः-पोरसीए-पौरुषी के, चउब्भाए-चतुर्थ भाग में, तओ-स्वाध्याय के अनन्तर, गुरु-गुरु को, वन्दित्ताण-वन्दना करके, कालस्स-समय को, पडिक्कमित्ता-प्रतिक्रम करके, तु-फिर, सेन्जं-शय्या की, पडिलेहए-प्रतिलेखना करे।
मूलार्थ-चतुर्थ प्रहर की पौरुषी के चतुर्थ भाग में स्वाध्याय के अनन्तर गुरु की वन्दना करके और काल को प्रतिक्रम करके फिर शय्या की प्रतिलेखना करे।
टीका-जब चतुर्थ पौरुषी का चतुर्थ भाग शेष रह जाए, तब स्वाध्याय के काल से प्रतिक्रमण करके अर्थात् स्वाध्याय को बन्द करके गुरु की वन्दना करके शय्या एवं वसती की प्रतिलेखना करे, अर्थात् जिस स्थान में साधु ठहरा हुआ है उस स्थान की प्रतिलेखना करे। यद्यपि स्वाध्याय के लिए दो घड़ी प्रमाण और समय भी था, परन्तु उस काल से निवृत्त होकर अर्थात् स्वाध्याय को छोड़कर वसती की प्रतिलेखना करने का विधान इसलिए किया गया है कि ईर्यासमिति की और आठ प्रवचन-माताओं की आराधना भली-भांति हो सके। अब फिर इसी विषय में कहते हैं - . पासवणुच्चारभूमिं च, पडिलेहिज्ज जयं जई । काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ३९ ॥
प्रस्त्रवणोच्चारभूमिं च, प्रतिलेखयेद् यतं यतिः ।
कायोत्सर्गं ततः कुर्यात्, सर्वदुःखविमोक्षणम् ॥ ३९ ॥ .. पदार्थान्वयः-पासवणुच्चारभूमिं च-प्रस्रवणभूमि और उच्चारभूमि की, पडिलेहिज्जा-प्रतिलेखना करे, जयं-यत्नशील, जई-यति, तओ-तदनन्तर, काउस्सग्गं-कायोत्सर्ग, कुज्जा-करे जो, सव्व-सर्व, दुक्ख-दुःखों से, विमोक्खणं-मुक्त करने वाला है। ५. मूलार्थ-यत्नशील मुनि प्रस्रवण और उच्चारभूमि की प्रतिलेखना करे, तदनन्तर सर्व दुःखों से छुड़ाने वाला कायोत्सर्ग करे। ___टीका-जब यत्नशील मुनि बसती की प्रतिलेखना कर चुके, तब प्रस्रवणभूमि (मूत्र-त्याग करने का स्थान) और उच्चारभूमि (पुरीष त्याग करने का स्थान) की प्रतिलेखना करे। उक्त दोनों प्रकार के
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४९] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं