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________________ त्रयोविंशतिः सागराणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । . प्रथमे जघन्येन, द्वाविंशतिः सागरोपमाणि ॥ २३३ ॥ __ पदार्थान्वयः-पढमम्मि-प्रथम त्रिक के प्रथम देवलोक में, जहन्नेणं-जघन्यरूप से, बावीसं-बाईस, सागरोवमा-सागरोपम की, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, तेवीस सागराइं-तेईस सागरोपम की, ठिई-स्थिति, भवे-होती है। ___ मूलार्थ-तेरहवें स्वर्ग के देवों की जघन्य आयु २२ सागरोपम की और उत्कृष्ट २३ सागरोपम की होती है। टीका-कल्प देवलोकों की आयु का वर्णन करने के अनन्तर प्रस्तुत गाथा से लेकर अब शास्त्रकार ने नवग्रैवेयक देवों की आयु का वर्णन आरम्भ किया है। नवग्रैवेयक देवलोकों की तीन श्रेणियां हैं। उनमें प्रत्येक श्रेणी के भी तीन-तीन त्रिक कहे गए हैं। उनमें प्रथम श्रेणी के प्रथम देवलोक में उत्पन्न होने वाले देवों का आयुमान प्रस्तुत गाथा में बताया गया है। अब चौदहवें देवलोक के देवों की आयु का प्रमाण बतलाते हैं चउवीस सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । . बिइयम्मि जहन्नेणं, तेवीसं सागरोवमा ॥ २३४ ॥ चतुर्विंशतिः सागराणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । द्वितीये जघन्येन, त्रयोविंशतिः, सागरोपमाणि ॥ २३४ ॥ पदार्थान्वयः-बिइयम्मि-प्रथम के द्वितीय त्रिक में, जहन्नेणं-जघन्यतया, तेवीसं सागरोवमा तेईस सागरोपम की, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, चउवीस-सागराइं-चौबीस सागरोपम की, ठिई-स्थिति, भवे-होती है। मूलार्थ-चौदहवें देवलोक अर्थात् प्रथम त्रिक के दूसरे देवलोक के देवों की जघन्य आयु २३ सागरोपम की और उत्कृष्ट २४ सागरोप्रम की होती है। टीका-प्रथम त्रिक के द्वितीय देवलोक में निवास करने वाले देवों का आयुमान इस गाथा में वर्णन किया गया है। यह स्वर्ग, त्रिक की अपेक्षा से दूसरा और गणना में अन्य स्वर्गों की अपेक्षा से चौदहवां है। अब पन्द्रहवें स्वर्ग के देवों की स्थिति के विषय में कहते हैं पणवीस सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । तइयम्मि जहन्नेणं, चउवीसं-सागरोवमा ॥ २३५ ॥ पञ्चविंशतिः सागराणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् । तृतीये जघन्येन, चतुर्विंशतिः सागरोपमाणि ॥ २३५ ॥ - पदार्थान्वयः-तइयम्मि-प्रथम त्रिक के तीसरे देवलोक में, जहन्नेणं-जघन्यरूप से, चउवीसं-चौबीस, सागरोवमा-सागरोपम की, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, पणवीस सागराइं-पच्चीस सागरोपम की, उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४६९] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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