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पदार्थान्वयः-सहस्सारम्मि-सहस्रार देवलोक में, उक्कोसेण-उत्कृष्टतया, अट्ठारस सागराइं-अष्टादश सागरोपम की, ठिई-स्थिति, भवे-होती है, जहन्नेणं-जघन्यतया, सत्तरस सागरोवमा-सप्तदश सागरोपम की है।
मूलार्थ-सहस्रार देवलोक में रहने वाले देवों की उत्कृष्ट भव-स्थिति १८ सागरोपम की और जघन्य १७ सागरोपम की कही गई है। ___टीका-सहस्रार देवलोक में ६ हजार विमान हैं। उनमें निवास करने वाले देवों की उत्कृष्ट और जघन्य आयु क्रमशः १८ और १७ सागरोपम की मानी गई है। व्रतधारी तिर्यञ्च अपने व्रतों के प्रभाव से इस आठवें देवलोक तक ही जा सकते हैं, इससे आगे नहीं। अब आनत नामा नवमें देवलोक के देवों की आयु का प्रमाण कहते हैं, यथा
सागरा अउणवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । आणयम्मि जहन्नेणं, अट्ठारस सागरोवमा ॥ २२९ ॥ सागराणि एकोनविंशतिस्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् ।
आनते जघन्येन, अष्टादश सागरोपमाणि ॥ २२९ ॥ पदार्थान्वयः-आणयम्मि-आनत देवलोक में, जहन्नेणं-जघन्यतया, अट्ठारस-अठारह, सागरोवमा-सागरोपम की, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, अउणवीसं-एकोनविंशति (१९), सागरा-सागरोपम की, ठिई-स्थिति, भवे-होती है। . ___मूलार्थ-आनत देवलोक में रहने वाले देवों की जघन्य १८ सागरोपम की और उत्कृष्ट १९ सागरोपम की स्थिति कथन की गई है। ____टीका-नवमें आनत देवलोक में २०० विमान हैं, जो कि विस्तार में संख्या और असंख्यात योजन प्रमाण हैं। उनमें रहने वाले देवों की जघन्य आयु १८ सागर की और उत्कृष्ट १९ सागर की होती है। अब दसवें स्वर्ग के देवों की आयु का वर्णन करते हैं, यथा
वीसं त सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे । पाणयम्मि जहन्नेणं, सागरा अउणवीसई ॥ २३० ॥
विंशतिस्तु सागराणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् ।
प्राणते जघन्येन, सागराणि एकोनविंशतिः ॥ २३० ॥ पदार्थान्वयः-पाणयम्मि-प्राणत देवलोक में, जहन्नेणं-जघन्यता से, अउणवीसई-उन्नीस, सागरा-सागरोपम की, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, वीस-बीस, सागराइं-सागरोपम की, ठिई-स्थिति, भवे-होती है, तु-प्राग्वत् ।
__ मूलार्थ-प्राणत देवलोक में जघन्य आयु १९ सागरोपम की और उत्कृष्ट २० सागरोपम की मानी गई है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४६७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं