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पल्योपममेकन्तु, . उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् ।
व्यन्तराणां जघन्येन, दशवर्षसहस्रिका ॥ २१९ ॥ पदार्थान्वयः-वंतराणं-व्यन्तरों की, ठिई-स्थिति, उक्कोसेण-उत्कृष्टरूप से, एगं-एक, पलिओवम-पल्योपम-प्रमाण, तु-और, जहन्नेणं-जघन्यता से, दसवाससहस्सिया-दस हजार वर्ष की, भवे-होती है। _ मूलार्थ-व्यन्तरों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक पल्योपम की होती है।
टीका-इस गाथा में सोलह जातियों के व्यन्तर देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया गया है, अर्थात् व्यन्तर-जाति के देवों की भवस्थिति, कम से कम दस हजार वर्ष की और अधिक से अधिक एक पल्योपम की होती है, तथा इन दोनों के बीच का समय मध्यस्थिति का है। अब ज्योतिषी देवों की भवस्थिति का वर्णन करते हैं
पलिओवममेगं तु, वासलक्खेण साहियं ।
पलिओवमट्ठभागो, जोइसेसु जहन्निया ॥ २२० ॥ ... पल्योपममेकन्तु, . वर्षलक्षेण साधिकम् ।
पल्योपमाष्टमभागः, ज्योतिष्केषु जघन्यका ॥ २२० ॥ पदार्थान्वयः-जोइसेसु-ज्योतिषी देवों की, जहन्निया-जघन्य स्थिति, पलिओवमट्ठभागो-पल्योपम का आठवां भाग, तु-पुनः, उत्कृष्ट स्थिति, वासलक्खेण साहियं-लाख वर्ष अधिक, एगं-एक, पलिओवमं-पल्योपम की होती है।
मूलार्थ-ज्योतिषी देवों की जघन्य स्थिति पल्योपम के आठवें भाग जितनी और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष से अधिक एक पल्योपम की होती है।
टीका-इस गाथा में ज्योतिषी देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का जो वर्णन किया गया है, उसमें जघन्य स्थिति तो चारों की अपेक्षा से कथन की गई है और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन सूर्य और चन्द्रमा की अपेक्षा से किया गया है, क्योंकि चन्द्रमा की एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की तथा सूर्य की एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की और ग्रहों की केवल एक पल्योपम की स्थिति कही गई है, परन्तु उक्त गाथा में जो वर्णन किया गया है वह जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का सामान्यतया वर्णन है, इसलिए किसी प्रकार के विरोध की आशंका नहीं करनी चाहिए।
अब वैमानिकों की स्थिति के विषय में कहते हैं___.. दो चेव सागराइं, उक्कोसेण वियाहिया ।
सोहम्मम्मि जहन्नेणं, एगं च पलिओवमं ॥ २२१ ॥
द्वे चैव सागरोपमे, उत्कर्षेण व्याख्याता । सौधर्मे जघन्येन, एकञ्च पल्योपमम् ॥ २२१ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४६३] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं