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मूलार्थ-स्थलचर जीव यदि अपना प्रथम शरीर छोड़कर दूसरी बार फिर वही शरीर धारण करें उसके बीच का जघन्य अन्तराल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट अनन्त काल तक का होता है।
टीका-अपने त्यांगे हुए पूर्व शरीर को फिर से ग्रहण करने तक का अन्तर कम से कम एक मुहूर्त का और अधिक से अधिक अनन्त काल का माना गया है। अब पक्षियों के सम्बन्ध में कहते हैं
चम्मे उ लोमपक्खी य, तइया समुग्गपक्खिया । विययपक्खी य बोधव्वा, पक्खिणो य चउव्विहा ॥ १८७ ॥
चर्मपक्षिणस्तु रोमपक्षिणश्च, तृतीयभेदः समुद्गपक्षिणः ।
विततपक्षिणश्च. बोद्धव्याः, पक्षिणश्च चतुर्विधाः ॥ १८७ ॥ पदार्थान्वयः-चम्मे-चर्म-पक्षी, उ-पुनः, लोमपक्खी य-रोम-पक्षी, तइया-तृतीय, समुग्गपक्खिया-समुद्ग पक्षी, य-और, विययपक्खी-वितत-पक्षी, बोधव्वा-जानना, य-पुनः, पक्खिणो-पक्षी-गण, चउविहा-चार प्रकार के कहे गए हैं।
मूलार्थ-चर्म-पक्षी, रोम-पक्षी, समुद्ग-पक्षी और वितत-पक्षी, इस प्रकार पक्षियों के चार भेद कहे जाते हैं।
टीका-प्रस्तुत गाथा में खेचर जीवों के भेदों का वर्णन किया गया है। खेचर अर्थात् आकाश में उड़ने वाले पक्षियों के भी-चर्म-पक्षी, रोम पक्षी, समुद्ग-पक्षी और वितत-पक्षी, ऐसे चार भेद वर्णन किए गए हैं। (१) चर्म-पक्षी-चमड़े के परों वाले चमगादड़ आदि; (२) रोम-पक्षी-हंस, चकवा आदि; (३) समुद्ग-पक्षी-जिनके पक्ष सदा अविकसित रहें तथा डब्बे के आकारसदृश जिनके पक्ष सदा ढके रहते हैं उनको समुद्ग-पक्षी कहते हैं, परन्तु ये पक्षी मनुष्यक्षेत्र से सदा बाहर ही होते हैं; (४) वितत-पक्षी-जिन पक्षियों के पर सदैव खुले या विस्तृत रहते हैं उनको वितत-पक्षी कहा गया है। ये पक्षी भी मनुष्यक्षेत्र से बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं। तात्पर्य यह है कि सार्द्ध द्वीप-समुद्रों से बाहर के क्षेत्रों में ही इन दोनों प्रकार के पक्षियों का निवास है। अब इनके क्षेत्र-विभाग और काल-विभाग के विषय में कहते हैं, यथा
लोगेगदेसे . ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया । इत्तो कालविभागं त, तेसिं वोच्छं चउव्विहं ॥ १८८ ॥ - लोकैकदेशे ते सर्वे, न सर्वत्र व्याख्याताः ।
इतः कालविभागन्तु, तेषां वक्ष्यामि चतुर्विधम् ॥ १८८ ॥ पदार्थान्वयः-लोगेगदेसे-लोक के एकदेश में, ते सव्वे-वे सब स्थित हैं, न-नहीं, सव्वत्थ-सर्वत्र, वियाहिया-कथन किए गए हैं, इत्तो-इसके बाद, तेसिं-उनके, चउव्विहं-चतुर्विध, कालविभाग-कालविभाग को, वोच्छं-कहूंगा, तु-पुनः।
मूलार्थ-ये सब पक्षीगण समस्त-लोक-व्यापी नहीं, किन्तु लोक के एकदेश अर्थात् क्षेत्र-विशेष में ही रहते हैं। अब मैं उनका चार प्रकार से काल-विभाग कहता हूं, आप सावधान होकर श्रवण करें!
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४४७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं