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मूलार्थ-त्रीन्द्रिय जीव अपने प्रथम ग्रहण किए हुए शरीर को छोड़कर फिर उसी जाति के शरीर को धारण करें तो उसके बीच के अन्तरकाल का प्रमाण कम से कम एक मुहूर्त और अधिक से अधिक अनन्तकाल तक का माना गया है।
टीका-इस गाथा की व्याख्या भी स्पष्ट ही है। अब प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए फिर इनके भेदों के विषय में कहते हैं, यथा
एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ १४४ ॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः ।
संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ १४४ ॥ पदार्थान्वयः-एएसिं-इन त्रीन्द्रिय जीवों के, वण्णओ-वर्ण से, च-और, गंधओ-गन्ध से, रसफासओ-रस और स्पर्श से, वा-तथा, संठाणादेसओ-संस्थान के आदेश से भी, सहस्ससो-हजारों, विहाणाई-भेद होते हैं।
मूलार्थ-तीन इन्द्रियों वाले जीवों के-वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से सहस्रों अर्थात् अनेकानेक उपभेद होते हैं। तात्पर्य यह है कि वर्ण, रस, गन्धादि के तारतम्य से इनके लाखों उपभेद बन जाते हैं।
टीका-गाथा का भावार्थ अत्यन्त स्पष्ट है। अब चतुरिन्द्रिय जीवों का वर्णन करते हैं, यथा- . .
चउरिंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया ! पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ १४५ ॥
चतुरिन्द्रियास्तु ये जीवाः, द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः ।
पर्याप्ता अपर्याप्ताः, तेषां भेदाञ्च्छृणुत मे ॥ १४५ ॥ पदार्थान्वयः-चउरिंदिया-चार इंद्रियों वाले, उ-पुनः, जे-जो, जीवा-जीव हैं, ते-वे, दुविहा-दो प्रकार के, पकित्तिया-कथन किए गए हैं, पज्जत्तमपज्जत्ता-पर्याप्त और अपर्याप्त, तेसिं-उनके, भेए-भेदों को, मे-मुझसे, सुणेह-श्रवण करो।
मूलार्थ-हे शिष्यो ! चार इन्द्रियों वाले जीव, पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो प्रकार के कथन किए गए हैं, अब तुम इनके भेदों को मुझसे सुनो !
टीका-आचार्य कहते हैं कि चतुरिन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। अब मैं इनके भेदों को तुमसे कहता हूं, तुम उन्हें सावधान होकर श्रवण करो ! तात्पर्य यह है कि भेदज्ञान से इनके स्वरूप का निश्चय भली प्रकार से हो सकेगा।
अब भेदों का वर्णन करते हैं, यथा
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४२८] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं