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अब फिर इसी विषय में कहते हैं
तम्मेव य नक्खत्ते, गयणचउब्भागसावसेसम्मि । वेरत्तियंपि कालं, पडिलेहित्ता मुणी कुज्जा ॥ २० ॥ तस्मिन्नेव च नक्षत्रे, गगनचतुर्भागसावशेषे ।
वैरात्रिकमपि कालं, प्रतिलेख्य मुनिः कुर्यात् ॥ २० ॥ पदार्थान्वयः-तम्मेव-उसी, नक्खत्ते-नक्षत्र की गति, गयण-गगन में, चउब्भाग-चतुर्थ भाग के, सावसेसम्मि-अवशेष होने पर, वेरत्तियं-वैरात्रिक, कालं-समय, पि-अपि-अन्य पौरुषी आदि काल, पडिलेहित्ता-देखकर, मुणी-मुनि, कुज्जा-कालग्रहण करे।
मूलार्थ-उसी नक्षत्र की गति जब गगन के चतुर्थभाग में आ जाए, तब वैरात्रिक काल को देखकर मुनि समय का ग्रहण करे।
टीका-इस गाथा में पूर्वोक्त कथन की पुष्टि की गई है, यथा-जिस नक्षत्र ने रात्रि को पूर्ण करना हो, जब वह नक्षत्र आकाश के चतुर्थ भाग में आ जाए, तब मुनि वैरात्रिक काल को ग्रहण करके अपनी आवश्यक क्रिया में प्रवृत्त हो जाए, अथवा आकाश में चतुर्थ भाग के अवशेष रह जाने पर उसी नक्षत्र के अनुसार समय को ठीक देखकर मुनि निज क्रियाओं में प्रवृत्ति कर लेवे। ___ वैरात्रिक काल का तात्पर्य यह है कि आकाश में चतुर्थ भाग, अर्थात् गन्तव्य से जो अवशेष चतुर्थ भाग है उसी वैरात्रिक काल में अपनी करणीय आवश्यक क्रियाएं करनी चाहिएं। 'अपि' शब्द से अन्य पौरुषियों का ग्रहण भी कर लेना अभीष्ट है। ___ऊपर कही हुई गाथा का सारांश इतना ही है कि-नक्षत्र की गति के द्वारा ,आकाश के चार भागों की कल्पना कर लेने पर उसके अनुसार अपनी रात्रिचर्या में प्रवृत्ति करनी चाहिए और चतुर्थ भाग शेष रहने पर आवश्यकादि क्रियाओं में मुनि को प्रवृत्त होना चाहिए।
___ यहां पर 'गयण'-'गगन' शब्द में सप्तमी विभक्ति के लुप्त होने का निर्देश है। धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, इस नियम के अनुसार 'कृञ्' धातु का यहां पर 'ग्रहण करना' अर्थ लिया गया है।
इस प्रकार सामान्य रूप से रात्रि और दिन के कृत्यों का निर्देश कर देने के अनन्तर अब विशेष रूप से दिनकृत्य के विषय में कहते हैं
पुव्विल्लम्मि चउब्भाए, पडिलेहित्ताण भण्डयं । गुरुं वन्दित्तु सज्झायं, कुज्जा दुक्खविमोक्खणं ॥ २१ ॥
पूर्वस्मिन् चतुर्भागे प्रतिलेख्य भाण्डकम् ।
गुरुं वन्दित्वा स्वाध्यायं, कुर्याद् दुःखविमोक्षणम् ॥ २१ ॥ पदार्थान्वयः-पुव्विल्लम्मि-पूर्व के, चउब्भाए-चतुर्थ भाग में, भण्डयं-भाण्डोपकरण को, पडिलेहित्ताण-प्रतिलेखन करके, गुरु-गुरु को, वन्दित्तु-वन्दना करके, दुक्खविमोक्खणं-दु:खों से
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३४] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं .