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टीका-सूक्ष्म अग्निकाय का कोई विशेष भेद नहीं है, किन्तु वह एक ही प्रकार का माना गया है। अब इनके काल-विभाग के वर्णन की प्रतिज्ञा करते हैं, यथा
इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउव्विहं ॥ १११॥
इतः कालविभागं तु, तेषां वक्ष्यामि चतुर्विधम् ॥ १११ ॥ पदार्थान्वयः-इत्तो-इससे आगे, तु-फिर, तेसिं-उनके, कालविभागं-कालविभाग को, चउव्विहं-चार प्रकार से, वुच्छं-कहूंगा।
मूलार्थ-अब इससे आगे उन जीवों के चार प्रकार के काल-विभाग को मैं कहूंगा।
टीका-प्रस्तुत अर्द्धगाथा में अग्निकाय के जीवों के काल-सम्बन्धी चतुर्विध विभाग के वर्णन की प्रतिज्ञा का उल्लेख किया गया है। अब शास्त्रकार उसी चतुर्विध विभाग का वर्णन करते हैं, यथा
संतई पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । ठिई पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥११२ ॥
सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च ।
स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ ११२ ॥ पदार्थान्वयः-संतई-सन्तति की, पप्प-अपेक्षा से, 'अणाईया-अनादि, य-और, अपज्जवसियावि-अपर्यवसित भी हैं, परन्तु, ठिइं-स्थिति की, पडुच्च-अपेक्षा से, साईया-सादि, य-और, सपज्जवसियावि-सपर्यवसित भी हैं।
मूलार्थ-सन्तान अर्थात् प्रवाह की दृष्टि से अग्निकाय के जीव अनादि और अनन्त हैं, परन्तु स्थिति की अपेक्षा से वे सादि और सान्त भी कहे गये हैं।
टीका-प्रवाह की दृष्टि से अग्निकाय के जीव अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से वे सादि-सान्त माने गए हैं। अब इनकी स्थिति का निरूपण करते हैं
तिण्णेव अहोरत्ता, उक्कोसेण वियाहिया । आउठिई तेऊणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ ११३ ॥ त्रीण्येवाहोरात्राणि, उत्कर्षेण व्याख्याता ।
आयुः स्थितिस्तेजसाम् अन्तर्मुहूर्त जघन्यका ॥११३ ॥ पदार्थान्वयः-तिण्णेव-तीन ही, अहोरत्ता-अहोरात्र की, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, तेऊणं-तेजस्काय के जीवों की, आउठिई-आयुस्थिति, वियाहिया-वर्णन की गई है, जहन्निया-जघन्य स्थिति, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त की बतलाई गई है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४१४] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं