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वह यदि उसी काय में जन्म-मरण करता रहे तो असंख्यातकाल-पर्यन्त उसी काय में रह सकता है। इसी अभिप्राय से उक्त गाथा में कहा गया है कि उस काया को न छोड़ता हुआ जीव असंख्य कालपर्यंत उसी में जन्म-मरण करता रहता है। इस प्रकार यह पृथिवीकाय के जीवों की सादि सान्तता का निरूपण भवस्थिति और. कायस्थिति की अपेक्षा से किया गया है। अब अन्तर बताते हैं, यथा
अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढमि सए काए, पुढवीजीवाण अंतरं ॥८२ ॥ - अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् ।
वित्यक्ते स्वके काये, पृथिवीजीवानामन्तरम् ॥ ८२ ॥ पदार्थान्वयः-अणंतकालं-अनन्त काल, उक्कोसं-उत्कृष्ट, जहन्नयं-जघन्य, अंतोमुहत्त-अन्तर्मुहूर्त, विजमि-छोड़ने पर, सए-स्व, काय-काया में, पुढवीजीवाण-पृथिवीकाय के जीवों का, अंतरं-अन्तर होता है। ___ मूलार्थ-स्वकाय की अपेक्षा से पृथिवीकाय के जीवों का जघन्य अन्तर तो अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट अनन्त काल का माना गया है। ___टीका-प्रस्तुत गाथा में पृथिवीकाय के जीवों के अन्तर का कथन किया गया है। पृथिवीकाय का जीव मर कर किसी अन्य काय में चला जाए और वहां से च्यव कर यह उसी काय में आए तो उसके लिए न्यून से न्यून तथा अधिक से अधिक जितना समय लगता है, अर्थात् पृथिवीकाय का जीव फिर जितने समय में वापिस उसी काय में आ सकता है, उसी को स्वकाय अन्तर कहते हैं, सो इसका जघन्य
और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा अनन्तकाल बताया गया है। ____ तात्पर्य यह है कि अपनी पूर्व की त्यागी हुई काया में फिर से आने के लिए कम से कम तो अन्तर्मुहूर्त का समय लगता है, अर्थात् इतने समय के पश्चात् ही वह जीव पृथिवीकाय में वापिस आ सकता है और यदि उसको आने में चिरकाल लगे तो अधिक से अधिक अनन्तकाल व्यतीत हो जाता है, अर्थात् इतने समय के बाद पृथिवीकाय में वापिस आता है। यह पृथिवीकाय के जीवों का जघन्य
और उत्कृष्ट अन्तर-मांन है। कारण यह कि वनस्पतिकाय में जीव अनन्त-काल तक कायस्थिति करता है, अत: उसी की अपेक्षा से पृथिवीकाय का अन्तर-काल, उत्कृष्टता से अनन्तकाल का माना गया है
और मध्यम काल की कल्पना अपनी बुद्धि के द्वारा कर लेनी चाहिए। परन्तु इतना ध्यान रहे कि भव-स्थिति, काय-स्थिति अन्तर-मान इत्यादि सब कुछ स्थिति की अपेक्षा से प्रतिपादन किया गया है
और सन्तति अर्थात् प्रवाह की अपेक्षा से तो पृथिवीकाय अनादि एवं अनन्त ही है। किसी काल में इसका सद्भाव न हो, ऐसा नहीं है। अब इनका भाव-सापेक्ष्य वर्णन करते हैं, यथा
एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रस-फासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो ॥ ८३ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३९९] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं