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________________ पञ्चचत्वारिंशत्शतसहस्राणि, योजनानां त्वायता । तावती चैव विस्तीर्णा, त्रिगुणस्तस्या एव परिरयः ॥ ५८ ॥ पदार्थान्वयः-पणयाल-पैंतालीस, सयसहस्सा-लाख, जोयणाणं-योजन की, तु-तो, आयया-लम्बी, च-और, तावइयं-उतनी ही, वित्थिण्णा-विस्तीर्ण-चौड़ी-फिर, तिगुणो-तीन गुणा अधिक, तस्सेव-उसी की, परिरओ-परिधि है, एव-निश्चय में है। मूलार्थ-वह ईषत्-प्राग्भारा पृथिवी (सिद्धशिला) पैंतालीस लाख योजन की तो लम्बी और उतनी ही चौड़ी है, तथा उसकी परिधि कुछ अधिक तीन गुणा है। टीका-प्रस्तुत गाथा में उस स्थान की लम्बाई, चौड़ाई और परिधि का उल्लेख किया गया है। उसकी लम्बाई पैंतालीस लाख योजन की है और उतनी ही उसकी चौड़ाई है-तथा उसकी परिधि (घिराव) कुछ अधिक तिगुना, अर्थात् एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार, दो सौ, उनचास योजन से कुछ अधिक कथन की गई है। . अब फिर इसी के सम्बन्ध में कहते हैं, यथा. अट्ठजोयणबाहल्ला, सा मज्झम्मि वियाहिया । परिहायंती चरिमते, मच्छिपत्ताउ तणुयरी ॥ ५९ ॥ . अष्टयोजनबाहल्या, सा मध्ये व्याख्याता । परिहीयमाणा चरमान्ते, मक्षिकापत्रात्तु तनुतरा ॥ ५९ ॥ पदार्थान्वयः-सा-वह पृथ्वी, अट्ठजोयण-आठ योजन प्रमाण, बाहल्ला-स्थूलता वाली, मज्झम्मि-मध्य भाग में, वियाहिया-कही गई है, फिर वह, परिहायंती-सर्व प्रकार से हीन होती हुई, चरिमंते-अन्त में, मच्छिपत्ताउ-मक्षिका-पंख से भी, तणुयरी-अधिक पतली है। मूलार्थ-वह पृथिवी (सिद्धशिला) मध्य में आठ योजन प्रमाण स्थूल-मोटी है। तथा फिर वह सर्व प्रकार से हीन होती-होती मक्षिकापत्र-मक्खी के पर-से भी अधिक पतली हो गई है। __टीका-इस गाथा में उक्त स्थान की स्थूलता और सूक्ष्मता का वर्णन किया गया है। वह पृथिवी मध्य में आठ योजन प्रमाण मोटी है, और चारों ओर से हीन होती-होती चरमान्त में वह मक्खी के परों से भी पतली रह गई है। यहां पर इतना ध्यान रहे कि-आठ योजन प्रमाण में, अवचूरीकार ने तो उत्सेधांगुल से प्रमाण की कल्पना की है, परन्तु अनुयोगद्वार में शाश्वत वस्तु के लिए प्रामाणांगुल का प्रमाण स्वीकार किया है। अब पुनः इसी विषय में कहते हैं... अज्जुणसुवण्णगमई, सा पुढवी निम्मला सहावेणं । उत्ताणगच्छत्तगसंठिया य, भणिया जिणवरेहिं ॥ ६० ॥ अर्जुनसुवर्णकमयी, सा पृथिवी निर्मला स्वभावेन । उत्तानकच्छत्रकसंस्थिता च, भणिता जिनवरैः ॥ ६० ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३८७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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