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________________ से १०८ जीव एक समय में सिद्धगति को प्राप्त करते हैं।' शिष्य प्रश्न करता है - कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्ठिया । - कहिं बोंदिं चइत्ताणं, कत्थ गंतूण सिज्झई ॥ ५५ ॥ क्व प्रतिहताः सिद्धाः, क्व सिद्धाः प्रतिष्ठिताः । क्व शरीरं त्यक्त्वा, कुत्र गत्वा सिध्यन्ति ॥ ५५ ॥ पदार्थान्वयः-कहिं-कहां पर, सिद्धा-सिद्ध, पडिहया-रुकते हैं, कहिं-कहां पर, बोंदि-शरीर को, चइत्ताणं-छोड़कर, कत्थ-कहां पर, गंतूणं-जाकर, सिज्झई-सिद्ध होते हैं। मूलार्थ-सिद्ध किस स्थान पर जाकर रुकते हैं ? किस स्थान पर प्रतिष्ठित हैं? तथा कहां पर शरीर छोड़कर कहां जाकर सिद्ध होते हैं ? टीका-प्रस्तुत गाथा में चार प्रश्नों का वर्णन किया गया है, यथा-(१) सिद्ध जीव कहां पर जाकर रुकते हैं ? (२) कहां जाकर ठहरते हैं ? (३) कहां पर अन्तिम शरीर को छोड़कर, (४) कहां जाकर सिद्धगति को प्राप्त करते हैं ? इन प्रश्नों का तात्पर्य यह है कि कर्म-मल से सर्वथा पृथक् हुए जीव की ऊर्ध्वगति अनिवार्य है, क्योंकि वह स्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करने वाला है, अतः जब वह कर्म-मल से रहित होकर ऊपर को गमन करेगा तो उसकी गति का निरोध कहां पर होगा, अर्थात् उसकी गति कहां जाकर रुकेगी, यह पहला प्रश्न है। दूसरा प्रश्न उसकी स्थिति के सम्बन्ध में है, अर्थात् वह कहां पर ठहरेगा। और तीसरे प्रश्न में उसकी शरीर-त्याग-सम्बन्धी व्यवस्था पूछी गई है, तथा चौथे में सिद्धि-स्थान के बारे में पूछा गया है इत्यादि। ... (सिद्धों के विषय में कुछ जानने योग्य प्रश्न और उनके उत्तर) अब शास्त्रकार इन पूर्वोक्त प्रश्नों का क्रमपूर्वक उत्तर देते हैं, यथा अलो,ए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया । इहं बोदिं चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झई ॥ ५६ ॥ .. अलोके प्रतिहताः सिद्धा, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः । . इहं शरीरं त्यक्त्वा, तत्र गत्वा सिध्यन्ति ॥ ५६ ॥ - पदार्थान्वयः-अलोए-अलोक में, सिद्धा-सिद्ध, पडिहया-प्रतिहत होते हैं-रुकते हैं, य-और, लोयग्गे-लोक के अग्रभाग में, पइट्ठिया-प्रतिष्ठित हैं, इह-यहां, बोंदि-शरीर को, चइत्ताणं-त्यागकर, तत्थ-लोक के अग्र भाग में, गंतूण-जाकर, सिज्झई-सिद्ध होते हैं। मूलार्थ-अलोक में जाकर सिद्ध रुकते हैं, लोक के अग्र भाग में ठहरते हैं और इस मनुष्य लोक में शरीर को छोड़कर, लोक के अग्र भाग में सिद्धगति को प्राप्त होते हैं। १. नोट- किसी-किसी प्रति में इस ५४वीं गाथा के स्थान में निम्नलिखित पाठ की दो गाथाएं देखने में आती हैं। यथा चउरो उड्ढलोगम्मि, वीसं पहुत्तं अहे भवे। सयं अट्ठोत्तरं तिरिए, एगसमएण सिज्झई ।। १ ।। दुवे समुद्दे सिझंति, सेस जलेसु ततो जणा। एसा उ सिज्झणा भणिया, पुव्वभावं पडुच्च उ ।। २ ।। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३८५] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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