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________________ इसके अतिरिक्त इतना और भी स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा एक अमूर्त पदार्थ है, अत: उसका लिंगभेद नहीं होता। लिंगभेद तो केवल उपाधिजन्य है तथा इस गाथा के द्वारा बिना किसी रोक-टोक के मनुष्यमात्र को मोक्ष के अधिकार की सूचना दी गई है जोकि समुचित ही है। इसके अतिरिक्त दीपिकावृत्ति-कार का कथन है कि कृत-नपुंसक ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है, जन्म-सिद्ध नपुंसक नहीं, कारण यह है कि उसकी कामोपशांति नहीं हो सकती और बिना कामोपशांति के मोक्ष प्राप्त नहीं होता, इसलिए 'नपुंसक' शब्द का अर्थ यहां पर 'कृत-नपुंसक' ही करना चाहिए। यथार्थ तत्त्व तो केवलीगम्य है, इसलिए इस पर अधिक ऊहापोह करना अनावश्यक है। अन्य सूत्रों में जो सिद्धों के १५ भेद माने गए हैं उन सब का इन्हीं ६ भेदों में अन्तर्भाव हो जाता है, अत: विरोध की संभावना अकिंचित्कर है और संक्षेप तथा विस्तार की दृष्टि से भी भिन्न-भिन्न लेखों का समन्वय सुकर है। ____ गाथा में आए हुए 'च' शब्द से भी यावन्मात्र तीर्थादि उपाधियां हैं, उन सब का ग्रहण कर लेने से विरोध की कोई संभावना नहीं रहती। अब क्षेत्रसिद्धों की अवगाहना का वर्णन करते हैं, यथा उक्कोसोगाहणाए य, जहन्नमज्झिमाइ य । उड्ढं अहे य तिरियं च, समुद्दम्मि जलम्मि य ॥ ५० ॥ उत्कृष्टावगाहनायाञ्च, जघन्यमध्यमयोश्च । ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक् च, समुद्रे जले च ॥ ५० ॥ पदार्थान्वयः-उक्कोसोगाहणाए-उत्कृष्ट अवगाहना में सिद्ध हुए, य-और, जहन्ना-जघन्य अवगाहना में सिद्ध हुए, य-तथा, मज्झिमाइ-मध्यम अवगाहना में सिद्ध हुए, उड्ढं-ऊर्ध्वलोक में, य-और. अहे-अधोलोक में च-तथा. तिरियं-तिरछे-लोक में, समम्मि -समद्र में य-और. जलम्मि-जल में अर्थात् नदी आदि जलाशयों में, य-अन्य पर्वतादि में सिद्ध हुए। मूलार्थ-उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम, सब प्रकार की अवगाहना में सिद्ध हो सकते हैं, तथा ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक में भी सिद्ध हो सकते हैं, एवं समुद्र, नदी, जलाशय और पर्वतादि पर भी सिद्ध हो सकते हैं। टीका-प्रस्तुत गाथा में सिद्धगति को प्राप्त होने वाले जीवात्माओं की अवगाहना, तथा जिस-जिस क्षेत्र अर्थात् स्थान से वे सिद्धगति को जाते हैं उन-उन स्थानों का दिग्दर्शन कराया गया है। अंतिम शरीर वाले जीव शरीर त्याग के समय जिस अवगाहना में हों उसी में वे मोक्षगति को प्राप्त करते हैं। तात्पर्य यह है कि अन्तिम शरीर-त्याग के समय उनके शरीर की जो अवस्था हो, उसी रूप में उनके आत्मप्रदेश शरीर में से निकलकर ऊपर सिद्धगति को प्राप्त हो जाते हैं, उस समय उनके शरीर की अवगाहना चाहे उत्कृष्ट हो, चाहे जघन्य अथवा मध्यम। यदि जघन्य होगी तो आत्मप्रदेश भी जघन्य अवगाहना में होंगे और उत्कृष्ट होगी तो उत्कृष्ट अवगाहना में रहेंगे। मध्यम अवगाहना दो हाथ की होती है और उत्कृष्ट ५०० धनुष की कही गई है, तथा उत्कृष्ट से न्यून और जघन्य से अधिक मध्यम अवगाहना.है। जिन आत्माओं के ज्ञानावरणादि कर्म सर्वथा क्षय हो चुके हैं वे ऊर्ध्वलोक मेरु-चूलिका आदि से भी मोक्ष उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३८२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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