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________________ इस प्रकार रूपी अजीव-द्रव्य का संक्षेप से वर्णन करके अब उसका उपसंहार तथा उत्तर विषय का उपक्रम करते हुए शास्त्रकार कहते हैं एसा अजीवविभत्ती, समासेण वियाहिया । इत्तो जीवविभत्तिं, वुच्छामि अणुपुव्वसो ॥ ४७ ॥ एषाऽजीवविभक्तिः, समासेन व्याख्याता । इतो जीवविभक्तिं, वक्ष्याम्यानुपूर्व्या ॥ ४७ ॥ पदार्थान्वयः-एसा-यह, अजीवविभत्ती-अजीव-विभक्ति अर्थात् अजीव-द्रव्य का विभाग, समासेण-संक्षेप से, वियाहिया-कहा गया है, इत्तो-इससे आगे, जीवविभत्तिं-जीव-विभक्ति को, अणुपुव्वसो-अनुक्रम से, वुच्छामि-कहूंगा अथवा कहता हूं। . मूलार्थ-यह अजीव-द्रव्य का विभाग मैंने संक्षेप से कह दिया है, अब इसके अनन्तर मैं क्रमपूर्वक जीव-द्रव्य के विभाग को कहूंगा या कहता हूं। टीका-प्रस्तुत गाथा में अजीव-द्रव्य के वर्णन का उपसंहार और जीव-द्रव्य के वर्णन का उपक्रम करने की प्रतिज्ञा करते हुए सूत्रकार ने प्रतिपाद्य विषय के पौर्वापर्य का दिग्दर्शन करा दिया है। आचार्य कहते हैं कि अजीव-द्रव्य और उसके भेदों का तो मैंने संक्षेप से वर्णन कर दिया है, अब इसके अनन्तर मैं जीव-द्रव्य के अवान्तर भेदों का वर्णन करता हूं। यह प्रतिपाद्य-विषयसम्बन्धी प्रतिज्ञा है। सारांश यह है कि संक्षेप से जीव और अजीव ये दो ही तत्त्व हैं और सब कुछ इन्हीं दोनों का विस्तारमात्र है। सो अजीव-तत्त्व का वर्णन तो हो चुका, अब जीव तत्त्व का वर्णन किया जाता है, इत्यादि। उक्त प्रतिज्ञा के अनुसार अब जीव-तत्त्व के विभाग का वर्णन करते हुए कहते हैं कि संसारत्था य सिद्धा य, दुविहा जीवा वियाहिया । सिद्धा णेगविहा वुत्ता, तं मे कित्तयओ सुण ॥ ४८ ॥ संसारस्थाश्च सिद्धाश्च, द्विविधा जीवा व्याख्याताः । सिद्धा अनेकाविधा उक्ताः, तान् मे कीर्तयतः श्रृणु ॥ ४८ ॥ पदार्थान्बयः-संसारत्था-संसार में रहने वाले, य-और, सिद्धा-सिद्धगति को प्राप्त हुए, दुविहा-दो प्रकार के, जीवा-जीव, वियाहिया-कथन किए गए हैं, सिद्धा-सिद्ध, अणेगविहा-अनेक प्रकार के, वुत्ता-कहे गए हैं, तं-उनको, कित्तयओ-कीर्तन करते हुए अर्थात् कहते हुए, मे-मुझ से, सुण-श्रवण करो। मूलार्थ-संसार में रहने वाले और सिद्धगति को प्राप्त हुए, इस प्रकार जीवों के दो भेद हैं, उनमें उपाधिभेद से सिद्धों के अनेक भेद कहे गए हैं, उन सब को तुम मुझ से सुनो। टीका-पीछे चैतन्य अर्थात् उपयोग को जीव का लक्षण बतलाया जा चुका है। जीव दो प्रकार के हैं-संसारी और सिद्ध। संसारचक्र में भ्रमण करने वाले जीव संसारी कहलाते हैं और जो जीव सिद्धगति अर्थात् मोक्षगति को प्राप्त हो चुके हैं उनको सिद्ध कहते हैं। उपाधिभेद से सिद्धों के भी अनेक भेद हैं, सो शास्त्रकार प्रथम इन्हीं के भेदों का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३८०] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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