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________________ की भजना है। तात्पर्य यह है कि कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल पदार्थ में दो प्रकार के गन्ध में से कोई एक गन्ध अवश्य रहती है, तथा पांच रसों में से कोई एक रस भी विद्यमान होगा ही एवं आठ प्रकार के स्पर्शों में से कोई दो स्पर्श भी मौजूद होंगे और उसका पांच प्रकार के संस्थानों में से कोई संस्थान भी अवश्य होगा। इस प्रकार कृष्ण वर्ण से युक्त अनन्त-प्रदेशी पुद्गल-स्कन्ध में गन्धादि. २० गुणों की भजना समझ लेनी चाहिए, अर्थात् उक्त गन्धादि बीस में से कोई एक या दो गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान तो अवश्य होंगे। इतना ध्यान रहे कि एक ही पुद्गल में सभी रस और सभी स्पर्श, तथा सभी संस्थान एक ही समय में नहीं होते, क्योंकि परस्पर विरोधी गुणों की एक ही समय में एक अधिकरण में निरपेक्ष स्थिति नहीं हो सकती। यथा एक ही कृष्ण वर्ण के पुद्गल-द्रव्य में अच्छी और बुरी दोनों ही गन्ध हो सकती हैं, अर्थात् काले रंग का पुद्गल-द्रव्य सुगन्धमय भी हो सकता और दुर्गन्धमय भी, परन्तु एक ही समय में एक ही रूप से वह सुगन्धमय भी हो तथा दुर्गन्ध वाला भी हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसी प्रकार रस, स्पर्श और संस्थानादि के विषय में भी समझ लेना चाहिए। तब इस सारे कथन का अभिप्राय यह हुआ कि जहां पर वर्ण है वहां पर गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानादि की भी भजना है, अर्थात् समुच्चयरूप से कृष्ण वर्ण के पुद्गल-स्कन्ध में-२ गन्ध, ५ रस, ८ स्पर्श और ५ संस्थान, ऐसे २० गुणों या बोलों की अपेक्षित स्थिति समझनी चाहिए। अब नील वाले वर्ण पुद्गल के विषय में कहते हैं, यथा वण्णओ जे भवे नीले, भइए से उ गंधओ । रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि य ॥ २३ ॥ वर्णतो यो भवेन्नीलः, भाज्यः स तु गन्धतः । रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च ॥ २३॥ पदार्थान्वयः-वण्णओ-वर्ण से, जे-जो, नीले-नीला, भवे-होवे, से-वह, उ-फिर, भइए-भाज्य है, गंधओ-गन्ध से, रसओ-रस से, च-और, फासओ-स्पर्श से, य-तथा, संठाणओवि-संस्थान से भी, भइए-भाज्य है, एव-प्राग्वत् । मूलार्थ-जो पुद्गल वर्ण से नील है वह गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से भी युक्त है, अर्थात् नील वर्ण वाले पुद्गल में भी-२ गन्ध, ५ रस, ८ स्पर्श और ५ संस्थानों की अपेक्षित स्थिति होती है। टीका-यहां पर भी कृष्ण वर्ण की भांति ही सारी व्यवस्था समझ लेनी चाहिए। अब रक्तवर्ण पुद्गल के विषय में कहते हैं, यथा वण्णओ लोहिए' जे उ, भइए से उ गंधओ । रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि य ॥ २४ ॥ वर्णतो लोहितो यस्तु, भाज्यः स तु गन्धतः । रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च ॥ २४ ॥ __उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३७०] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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