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________________ मूलार्थ-सन्तति अर्थात् प्रवाह की अपेक्षा से, समय अनादि-अपर्यवसित अर्थात् अनादि अनन्त है और आदेश की अपेक्षा से सपर्यवसित अर्थात् सादि-सान्त भी कहा गया है। ___टीका-सन्तति अर्थात् प्रवाह की अपेक्षा से समय अनादि-अनन्त है, क्योंकि समय की उत्पत्ति नहीं होती है और उत्पत्ति से रहित होने से वह अनादि-आदि-शून्य, अनन्त-अन्त-शून्य, स्वतः सिद्ध हो जाता है। तात्पर्य यह है कि जब हम प्रवाह को देखते हुए समय के आदि की खोज करते हैं तब उसका आरम्भिक छोर उपलब्ध नहीं होता, तथा इसी प्रकार उसका पर्यवसान भी देखने में नहीं आता, इसलिए प्रवाह की अपेक्षा से समय को अनादि-अनन्त माना गया है, परन्तु कार्य विशेष की अपेक्षा से वह सादि-सान्त अर्थात आदि और अन्त वाला है। जैसे कि-किसी कुलाल ने अमुक समय में घट-निर्माणरूप कार्य का आरम्भ किया तो आरम्भ की अपेक्षा से वह सादि अर्थात् आदिसहित ठहरता है और घटनिर्माण की समाप्ति पर उसका अन्त हो जाता है, इसलिए आदेश अर्थात् कार्य की दृष्टि से समय को सादि-सान्त स्वीकार किया गया है। समय की सादि-सान्तता का लोक में भी निरन्तर व्यवहार होता रहता है। यथा-किसी शिक्षक ने अपने विद्यार्थी को पढ़ने का समय दस बजे का दिया है और वह विद्यार्थी ग्यारह बजे पहुंचता है, तब उससे शिक्षक कहता है कि "वत्स ! तुम्हारा समय तो समाप्त हो चुका है, अब तो दूसरों का समय आरम्भ हो गया है। इत्यादि सार्वजनिक व्यवहार से समय की सादि-सान्तता भी मानी गई है। सारांश यह है कि प्रवाह की ओर दृष्टि डालें, तब तो समय के आदि और अन्त दोनों का ही कुछ पता नहीं लगता, परन्तु नानाविध कार्यों के आरम्भ और समाप्ति को देखते हुए समय की उत्पत्ति और विनाश दोनों ही दृष्टिगोचर होते हैं, इसलिए उसको सादि-सान्त कहा गया है। ___इस प्रकार द्रव्य-क्षेत्र और काल से अरूपी द्रव्य का निरूपण किया गया है, परन्तु भाव से सभी द्रव्य वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित हैं, इसलिए अरूपी अर्थात् अमूर्त हैं तथा भाव से इनका निरूपण करने पर भी इनके पर्यायों के प्रत्यक्ष न होने से उनका अनुभव होना अतीव कठिन है, इसलिए भाव-सम्बन्धी निरूपण को केवल अनुमानगोचर होने से छोड़ दिया गया है। अब क्रम-प्राप्त रूपी अजीव-द्रव्य का निरूपण करते हैं, यथा खंधा य खंधदेसा य, तप्पएसा तहेव य । परमाणुणो य बोद्धव्वा, रूविणो य चउव्विहा ॥१०॥ - स्कन्धाश्च स्कन्धदेशाश्च, तत्प्रदेशास्तथैव च । परमाणवश्च बोद्धव्याः, रूपिणश्च चतुर्विधाः ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः-खंधा-स्कंध, य-और, खंधदेसा-स्कन्ध का देश, य-तथा, तहेव-उसी प्रकार, तप्पएसा-स्कन्ध के प्रदेश, य-और, परमाणुणो-परमाणु-पुद्गल, य-पुनः इसी प्रकार, रूविणो-रूपी द्रव्य के, चउव्विहा-चार भेद, बोद्धव्वा-जानने चाहिएं। मूलार्थ-रूपी द्रव्य के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ये चार भेद हैं। टीका-प्रस्तुत गाथा में रूपी द्रव्य के भेदों का निरूपण किया गया है। जिसमें वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्शादि की उपलब्धि होती हो वह रूपी द्रव्य है। पुद्गल रूपी अर्थात् मूर्त-द्रव्य है, क्योंकि उसमें उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३६२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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