SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किसी-किसी प्रति में “सव्वन्नुदेसिय' पाठ भी है तथा “एगग्गमणा' के स्थान पर ‘एगमणा' भी देखने में आता है। अब मार्ग का निरूपण करते हैं, यथा गिहवासं परिच्चज्ज, पव्वज्जामस्सिए मुणी । इमे संगे वियाणिज्जा, जेहिं सज्जंति माणवा ॥ २ ॥ गृहवासं परित्यज्य, प्रव्रज्यामाश्रितो मुनिः । इमान् संगान् विजानीयात्, यैः सज्यन्ते मानवाः ॥ २ ॥ पदार्थान्वयः-गिहवासं-गृहवास को, परिच्चज्ज-छोड़कर, पव्वज्जां-दीक्षा का, अस्सिए-आश्रयण करने वाला, मुणी-मुनि, इमे-इन, संगे-संगों को, वियाणिज्जा-जाने, जेहिं-जिनमें, माणवा-मनुष्य, सज्जति-बंध जाते हैं। मूलार्थ-गृहवास को छोड़कर प्रव्रज्या के आश्रित हुआ मुनि इन संगों को भली-भांति जानने का यत्न करे, जिनमें ज्ञानावरणीयादि कर्मों के द्वारा फंसे हुए मनुष्य बन्धन को प्राप्त होते हैं। टीका-प्रस्तुत गाथा में गृहवास को त्यागकर प्रव्रजित होने वाले जीव के कर्तव्य का निर्देश किया गया है। जैसे कि-जिस साधु ने गृहवास अर्थात् गृहस्थाश्रम को छोड़कर प्रव्रज्या को अंगीकार कर लिया है, अर्थात् भिक्षु होकर विचरने लग गया है, उस साधु को उन संगों-पुत्र, मित्र और कलत्रादि में होने वाली मोहमूलक आसक्तियों के स्वरूप को भलीभांति समझ लेना चाहिए, जिनसे कि सामान्य व्यक्ति अच्छी तरह से बंधे हुए हैं। तात्पर्य यह है कि गृहस्थाश्रम का परित्याग करने के अनन्तर संयमवृत्ति को धारण करने वाले साधक को पुत्र, मित्र और कलत्रादि में उत्पन्न होने वाले मोह को सर्वथा त्याग देना चाहिए, क्योंकि मोह से इनमें आसक्ति पैदा होती है और वह आसक्ति कर्मबन्ध का कारण बनती है तथा कर्मबन्ध से जन्म-मरण परम्परा की वृद्धि होती है एवं यही वृद्धि दुःखरूप व्याधि का मूल कारण है। इसलिए इन वक्ष्यमाण संगों का विचार करके इनमें किसी प्रकार की आसक्ति न रखना ही मुमुक्षु पुरुष का सबसे पहला कर्तव्य है। 'जेहिं' में सुप् का व्यत्यय है, अर्थात् सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग किया गया है। अब गृहवास को छोड़कर संयम ग्रहण करने वाले मुनि के लिए विशेषरूप से कर्त्तव्य का निर्देश करते हुए सब से प्रथम आस्त्रवों के त्याग के विषय में कहते हैं, यथा तहेव हिंसं अलियं, चोज्ज अब्बंभसेवणं । इच्छाकामं च लोहं च, संजओ परिवज्जए ॥ ३ ॥ तथैव हिंसामलीकं, चौर्यमब्रह्मसेवनम् । इच्छाकामञ्च लोभञ्च, संयतः परिवर्जयेत् ॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः-हिंस-हिंसा, अलियं-असत्य-झूठ, चोज्ज-चौर्य कर्म-चोरी, अब्बभसेवणं उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३४४] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy