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________________ मैं पसत्थाओ - प्रशस्त लेश्याओं को, मुणी-साधु, अहिट्ठिए- अंगीकार करे, त्ति बेमि- इस प्रकार कहता हूं, इति लेसज्झयणं समत्तं - यह लेश्याध्ययन समाप्त हुआ। मूलार्थ - इसलिए इन लेश्याओं के अनुभाव अर्थात् रसविशेष को जानकर साधु अप्रशस्त लेश्याओं को त्याग कर प्रशस्त लेश्याओं को स्वीकार करे । टीका - ऊपर बताया जा चुका है कि इन छहों लेश्याओं में से पहली तीन लेश्याएं अप्रशस्त हैं और उत्तर की तीन प्रशस्त लेश्याएं हैं। प्रशस्त लेश्याएं सुगति को देने वाली हैं और अप्रशस्त दुर्गति में ले जाने वाली हैं। इसलिए विचारशील मुनि इन लेश्याओं के अनुभाव अर्थात् परिणाम या फलविशेष पर विचार करता हुआ अप्रशस्त लेश्याओं का त्याग करके प्रशस्त लेश्याओं को धारण करने का यत्न करे । यहां पर 'अहिट्ठिए- अधितिष्ठेत्' इस क्रियापद के देने का अभिप्राय जीवात्मा की स्वतन्त्रता को ध्वनित करना है, अर्थात् यह आत्मा सदैव लेश्याओं के वशीभूत रहने वाला नहीं हैं, अपने पराक्रम से इसका उन पर अधिकार हो सकता है। तात्पर्य यह है कि यदि वह चाहे तो अप्रशस्त लेश्याओं का परित्याग करके प्रशस्त लेश्याओं को बलात् स्वीकार कर सकता है। इसके अतिरिक्त 'त्ति बेमि' का वही भावार्थ है जिसका उल्लेख पिछले अध्ययनों की पूर्णता पर किया जा चुका है। यह लेश्या नामक अध्ययन समाप्त हुआ। चतुस्त्रिंशत्तममध्यनम् सम्पूर्णम् नोट : लेश्याओं का विस्तृत वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के १७वें पद में किया गया है, इसलिए अधिक देखने की जिज्ञासा रखने वाले वहां पर देखें। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३४२ ] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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