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________________ पदार्थान्वयः-तेऊ-तेजोलेश्या, पम्हा-पद्मलेश्या, सुक्का-शुक्ललेश्या, एयाओ-ये, तिन्नि वि-तीनों ही, धम्मलेसाओ-धर्मलेश्या हैं, एयाहि तिहि वि-इन तीनों से ही, जीवो-जीव, सुग्गइं-सुगति में, उववज्जई-उत्पन्न होता है। मूलार्थ-तेज, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्यायें धर्मलेश्या कही जाती हैं। इन तीनों के द्वारा यह जीव सुगति में उत्पन्न होता है। टीका-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या, ये तीन लेश्यायें सुग्रति की जनक होने से धर्मलेश्या कही जाती हैं, अर्थात् जो जीव इन प्रशस्त लेश्याओं को लेकर परलोक की यात्रा करता है, वह सुगति अर्थात् देव-मनुष्यादि-गतियों में उत्पन्न होता है। कारण यह है कि जिस लेश्या को लेकर जीव काल करता है, उस लेश्या में वह परलोक में जाकर उत्पन्न होता है, अतः इन तीनों धर्मलेश्याओं के द्वारा जीवात्मा को देव, मनुष्य आदि शुभ गति की ही प्राप्ति होती है तथा इनमें जो शुक्ललेश्या है, वह तो कैवल्योत्पत्ति में भी निमित्त मानी जाती है। क्या प्रथम समय में वा चरम समय में भावी लेश्या का उदय होने से परभव की आयु का उदय होता है, अथवा किसी अन्य प्रकार से होता है? अब सूत्रकार इसी शंका का समाधान करते हुए कहते हैं - लेसाहिं सव्वाहिं. पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न हु कस्सइ उववत्ती, परे भवे अस्थि जीवस्स ॥५८ ॥ लेश्याभिः सर्वाभिः, प्रथमे समये. परिणताभिस्तु । न खलु कस्याप्युत्पत्तिः, परे भवेऽस्ति जीवस्य ॥ ५८ ॥ पदार्थान्वयः-लेसाहि-लेश्यायें, सव्वाहि-सर्व, पढमे-प्रथम, समयम्मि-समय में, परिणयाहिं-परिणत होने से, न हु-नहीं, कस्सइ-किसी भी, जीवस्स-जीव की, उववत्ती-उत्पत्ति, परे भवे-परभव में, अस्थि-होती, तु-पादपूर्ति में है। मूलार्थ-सर्व लेश्याओं की प्रथम समय में परिणति होने से किसी भी जीव की परलोक में उत्पत्ति नहीं होती, अर्थात् यदि लेश्या को आए हुए केवल एक समय हुआ हो तो उस समय जीव परलोक की यात्रा नहीं करता। टीका-प्रस्तुत गाथा में इस विषय का वर्णन किया गया है कि यह जीव जिस लेश्या में कालधर्म को प्राप्त होता है, भवान्तर में उसी लेश्या में जाकर उत्पन्न हो जाता है। तात्पर्य यह है कि जिस लेश्या को साथ लेकर यह जीव परलोक को गमन करता है उस लेश्या को आए हुए कितना समय होना चाहिए, इस बात का समाधान प्रस्तुत गाथा में किया गया है। यथा-छहों लेश्याओं में से किसी भी लको उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३३९] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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