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जब कि आगामी जन्म में नीललेश्या को प्राप्त करने वाले जीव में मृत्यु के समय से एक मुहूर्त्त पहले ही नीललेश्या का प्राप्त होना अवश्यंभावी है।
समाधान- पल्य के असंख्यातवें भाग में ही अन्तर्मुहूर्त का समावेश हो जाता है, अर्थात् पल्योपम का असंख्यातवां भाग अन्तर्मुहूर्त के अर्थ में हो पर्यवसित है, क्योंकि असंख्यात के भी असंख्यात भेद हैं और उन्हीं में अन्तर्मुहूर्त्त भी गृहीत हो जाता है । सारांश यह है कि यहां पर पल्य के तात्पर्यरूप से अन्तर्मुहूर्त्त ही अर्थ है, इसलिए विरोध की यहां पर कोई संभावना नहीं है। इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए।
अब कापोतलेश्या की स्थिति के विषय में कहते हैं, यथा
मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तिण्णुदही - पलियमसंखभागमब्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा काउलेसाए ॥ ३६ ॥
मुहूर्त्तार्द्धं तु जघन्या, त्र्युदधिपल्योपमासंख्य भाग
उत्कृष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या कापोतलेश्यायाः ॥ ३६ ॥
पदार्थान्वयः - मुहुत्तद्धं - अन्तर्मुहूर्त, तु-तो, जहन्ना - जघन्य स्थिति, उक्कोसा - उत्कृष्ट, तिण्णुदही - तीन सागरोपम, पलियं - पल्योपम का, असंखभागमब्भहिया - असंख्यातवां भाग अधिक, काउलेसाए- कापोतलेश्या की, ठिई-स्थिति, होइ - होती है, नायव्वा - इस प्रकार जानना चाहिए।
मूलार्थ - कापोतलेश्या की जघन्य स्थिति तो एक अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट प्रल्योपम के असंख्यातवें भागसहित तीन सागर की जाननी चाहिए।
टीका-प्रस्तुत गाथा कापोतलेश्या की स्थिति के वर्णन के लिए प्रयुक्त हुई है, परन्तु कापोतलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति का यह वर्णन द्रव्यकापोतलेश्या का ही है, तथा वह नरक की अपेक्षा से किया गया है। यहां पर भी पल्य के असंख्यातवें भाग का तात्पर्य अन्तर्मुहूर्त्त से है।
अब तेजोलेश्या की स्थिति का वर्णन करते हैं, यथा
मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, दोण्णुदही - पलियमसंखभागमब्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा तेउलेसाए ।। ३७ ।।
मुहूर्त्तार्द्ध तु जघन्या, द्वयुदधि - पल्योपमासंख्यभागाधिका । उत्कृष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या तेजोलेश्यायाः ॥ ३७ ॥
पदार्थान्वयः - मुहुत्तद्धं - अर्द्धमुहूर्त, तु-तो, जहन्ना - जघन्य स्थिति, उक्कोसा - उत्कृष्ट, दोण्णुदही - दो सागरोपम, पलियमसंखभागमब्भहिया - पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक, ठिई-स्थिति, होइ - होती है, तेउलेसाए - तेजोलेश्या की, नायव्वा - जाननी चाहिए।
मूलार्थ - तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्तमात्र और उत्कृष्ट स्थिति फ्ल्योपम के असंख्यातवें भागसहित दो सागरोपम की जाननी चाहिए।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३२८] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झणं