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मान, स्थिति और आकारादि का क्रमशः ह्रास होता जाए, उसको अवसर्पिणीकाल कहते हैं तथा जिसमें पदार्थों की आयु, स्थिति और आकारादि की वृद्धि होती जाए उसका नाम उत्सर्पिणीकाल है। इन दोनों में प्रत्येक के छह-छह आरे अर्थात् विभाग माने गए हैं तथा इन दोनों का कालमान एक जैसा है। तात्पर्य यह है कि दश कोटाकोटी सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल होता है। इतने ही कालमान का एक उत्सर्पिणी काल होता है। इस प्रकार दोनों का कालमान मिलाकर बीस कोटाकोटी सागरोपम का एक कालचक्र होता है।
___ अवसर्पिणीकाल में जीवों के शरीर, आयु, प्रमाण और सुखादि का क्रमशः ह्रास होता चला जाता है तथा दूसरे उत्सर्पिणीकाल में उनकी क्रम से वृद्धि होती जाती है। ___ अब प्रस्तुत विषय की ओर आने पर तत्त्व यह निकला कि उक्त प्रकार के असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालचक्रों के जितने समय हो सकते हैं, उतने स्थान लेश्याओं के हैं। यह काल-विभाग से लेश्याओं के स्थान का वर्णन हुआ।
__अब क्षेत्रविभाग से उनके स्थानों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि संख्यातीत लोक अर्थात् असंख्यात लोकों में जितने भी आकाश-प्रदेश हैं, उतने ही स्थान लेश्याओं के हैं। इसमें इतना ध्यान रहे कि स्थानों की यह कल्पना शुभाशुभ दोनों प्रकार की लेश्याओं के सम्बन्ध को लेकर की
गई है।
स्थानों की यह कल्पना काल से असंख्यातकालचक्रों के समयों के तुल्य है और क्षेत्र से असंख्यातलोकाकाश के प्रदेशों के समान है। स्थानों का यथार्थ ज्ञान केवली के सिवाय और किसी को नहीं हो सकता। इन स्थानों के अनुसार ही कर्म-प्रकृतियों का बन्ध, अर्थात् आत्म-प्रदेशों के साथ द्रव्य-कर्माणुओं का मेल होता है। अब लेश्याओं की स्थिति के विषय में कहते हैं, यथा
मुहुत्तद्धं तु जहन्ना तेत्तीसा सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा किण्हलेसाए ॥ ३४ ॥ मुहूर्ताद्धं तु जघन्या, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा मुहूर्ताधिका ।
उत्कृष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या कृष्णलेश्यायाः ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः-मुहुत्तद्धं-अन्तर्मुहूर्त, तु-तो, जहन्ना-जघन्य और, तेत्तीसा सागरा-तेंतीस सागरोपम, मुहुत्तहिया-मुहूर्त अधिक, उक्कोसा-उत्कृष्ट, ठिई-स्थिति, होइ-होती है, किण्हलेसाए-कृष्णलेश्या की, नायव्वा-ऐसा जानना चाहिए।
मूलार्थ-कृष्णलेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहूर्तसहित तेंतीस सागरोपम-प्रमाण होती है, ऐसा जानना चाहिए।
टीका-प्रस्तुत गाथा में कृष्णलेश्या की स्थिति का प्रतिपादन किया गया है। एक भव की अपेक्षा
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३२६] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं