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दुसओ तेयालो वा, लेसाणं होइ परिणामो ॥ २० ॥ त्रिविधो वा नवविधो वा, सप्तविंशतिविध एकाशीतिविधो वा ।
त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशतविधो वा, लेश्यानां भवति परिणामः ॥ २० ॥ पदार्थान्वयः-तिविहो-त्रिविध, व-अथवा, नवविहो-नवविध, वा-अथवा, सत्तावीसइविहसत्ताईस प्रकार, वा-अथवा, इक्कसीओ-इकासी प्रकार, वा-तथा, दुसओ-दो सौ, तेयालो-तेंतालीस प्रकार का, लेसाणं-लेश्याओं का, परिणामो-परिणाम, होइ-होता है।
मूलार्थ-इन छओं लेश्याओं के अनुक्रम से-तीन, नौ, सत्ताईस, इक्कासी और दो सौ तेंतालीस प्रकार के परिणाम होते हैं।
टीका-प्रस्तुत गाथा में छओं लेश्याओं के परिणामों का वर्णन किया गया है। इन परिणामों की संख्या अनुक्रम से ३, ९, २७, ८१ और २४३ होती है। यथा-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, इस प्रकार तीन परिणाम हुए; इन तीनों के फिर एक-एक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद करने से ९ हो जाते हैं; इसी प्रकार सत्ताईस को तीनगुणा करने से ८१, और ८१ को तीनगुणा करने से २४३ भेद हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक को तीनगुणा करने से इन परिणाम-भेदों की संख्या २४३ हो जाती है, परन्तु इतना ध्यान रहे कि परिणामों के ये भेद केवल संख्यागत नियम को लेकर किए गए हैं। परिणामों की अपेक्षा से तो संख्या का नियमन नहीं हो सकता, कारण कि न्यूनाधिकता में संख्या का बोध नहीं रहता। तात्पर्य यह है कि वहां संख्या ही नहीं रहती। ___परिणाम-द्वार के अनन्तर अब लक्षण द्वार का वर्णन करते हैं, यथा
पंचासवप्पवत्तो, तीहिं अगुत्तो छसु अविरओ य । .. तिव्वारंभपरिणओ, खुद्दो साहसिओ नरो ॥ २१ ॥
निद्धंधसपरिणामो, निस्संसो अजिइंदिओ । एयजोगसमाउत्तो, किण्हलेसं तु परिणमे ॥ २२ ॥
पञ्चास्त्रवप्रवृत्तः, तिसृभिरगुप्तः षट्स्वविरतश्च । तीव्रारम्भपरिणतः, क्षुद्रः साहसिको नरः ॥ २१ ॥ निध्वंसपरिणामः, नृशंसोऽजितेन्द्रियः ।
एतद्योगसमायुक्तः, कृष्णलेश्यां तु परिणमेत् ॥ २२ ॥ १.प्रज्ञापनासूत्र में भी लेश्याओं के परिणामों का इसी प्रकार का वर्णन मिलता है। यथा-"कण्हलेसाणं भंते ! कतिविहपरिणामं परिणमति. ? गोयमा ! तिविहं वा, नवविहं वा, सत्तावीसइविहं वा, एकासीइविहं वावि, तेयालदुसयविहं वा, बहुं वा बहुविहं वा परिणामं परिणमति, एवं जाव सुक्कलेसा"। [पद १७, उद्दे. ४, सू. २२९]
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३१९] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं