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________________ किण्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्कलेसा य छट्ठा य, नामाई तु जहक्कमं ॥ ३ ॥ तेजः पद्मा तथैव च । कृष्णा नीला च कापोती च, शुक्ललेश्या च षष्ठी च, नामानि तु यथाक्रमम् ॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः - किण्हा - कृष्णलेश्या, य-फिर, नीला नीललेश्या, य-तथा, काऊ - कापोतलेश्या, य - और, तेऊ - तेजोलेश्या, पम्हा - पद्मलेश्या, तहेव - उसी प्रकार, छट्ठा - छठी, सुक्कलेसा - शुक्ललेश्या, जहक्कमं- अनुक्रम से, नामाइं नाम हैं, तु- पादपूर्ति में है । मूलार्थ - छहों लेश्याओं के नाम अनुक्रम से इस प्रकार हैं - १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, ३. कापोतलेश्या, ४. तेजोलेश्या, ५. पद्मलेश्या और ६. शुक्ललेश्या । टीका-विषयवर्णन की सुगमता के लिए सूत्रकार ने लेश्याओं के नाम का निर्देश कर दिया है। कारण यह है कि जिस पदार्थ का निरूपण करना हो उसका यदि प्रथम नामनिर्देश कर दिया जाए तो वह सुगम हो जाता है। अब वर्ण द्वार का निरूपण करते हैं, यथा जीमूयनिद्धसंकासा, गवल - रिट्ठगसंनिभा । खंजजण - नयणनिभा, किण्हलेसा उ वण्णओ ॥ ४ ॥ जीमूतस्निग्धसंकाशा, गवलारिष्टकसंनिभा । खञ्जाञ्जननयननिभा, कृष्णलेश्या तु वर्णतः ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः - जीमूय - मेघ, निद्ध-स्निग्ध, संकासा - समान, गवलरिट्ठगसंनिभा - महिष श्रृंग, काक अथवा फलविशेष (रीठा) की गुठली के सदृश, खंजंजण- शकट के अंजन, काजल, नयन - नेत्र की कीकी के, निभा - समान, किण्हलेसा - कृष्णलेश्या, उ-निश्चयार्थक है, वण्णओ - वर्ण से मूलार्थ - वर्ण की दृष्टि से कृष्णलेश्या जलयुक्त मेघ, महिष के श्रृंग, काक, रीठे की गुठली, शकट की कीट, काजल और नेत्रतारिका इनके समान होती है। टीका - प्रस्तुत गाथा में कृष्णलेश्या के वर्ण अर्थात् रूप का कथन किया गया है। कृष्णलेश्या का रूप कैसा होता है, इसके लिए सूत्रकार जलयुक्त मेघ, महिषश्रृंग, काक और रीठे की गुठली, शकट की कीट अथवा काजल और नेत्र की कीकी का उल्लेख किया है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार जल से भरे हुए मेघ का रंग होता है उसी वर्ण की कृष्णलेश्या होती है। तथा महिष के श्रृंग के समान, अथवा काक के समान वा रीठे की गुठली के समान, अथवा च शकट गाड़ी के कीट वा काजल और नेत्र की कीकी के समान कृष्णलेश्या का वर्ण होता है। यहां पर गाथा में आए हुए (नयण) शब्द का उपचार से नेत्रगत काले भाग का ग्रहण ही अभिप्रेत है और रिट्ठग से रीठे की गुठली का रंग ग्राह्य है, क्योंकि रीठा भूरा होता है और उसकी गुठली ही काली हुआ करती है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३१०] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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