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________________ रागादि को दूर करने के भाव उसमें उत्पन्न हो गए अथवा एक काल में ही सिद्धान्तविषयक प्रीति के भाव जागृत हो गए, तब उस आत्मा के राग-द्वेषरूप जो संकल्प हैं उन सब का उसी समय कल्प अर्थात् उच्छेद हो जाता है। इस प्रकार राग-द्वेष आदि के क्षय से तृष्णा के क्षय हो जाने के अनन्तर इस आत्मा को किस गुण की उपलिब्ध होती है, अर्थात् वह क्या हो जाती है, आगामी गाथा में इसी प्रश्न का समाधान किया गया है। अब वही समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं, यथा स वीयरागो कयसव्वकिच्चो, खवेइ नाणावरणं खणेणं ।। तहेव जं दसणमावरेइ, जं चंतरायं पकरेइ कम्मं ॥ १०८ ॥ .. स वीतरागः कृतसर्वकृत्यः, क्षपयति ज्ञानावरणं क्षणेन । तथैव यत् दर्शनमावृणोति, यदन्तरायं प्रकरोति कर्म ॥ १०८ ॥ पदार्थान्वयः-स-वह, वीयरागो-वीतराग, कयसव्वकिच्चो-जिसने सभी कर्तव्यों का पालन कर लिया है, नाणावरणं-ज्ञानावरणीय कर्म, खणेण-क्षण भर में, खवेइ-क्षय कर देता है, तहेव-उसी प्रकार, जं-जो, दंसणं-दर्शन को, आवरेइ-आवरण करता है, जं-जो, च-पुनः, अंतरायं-अन्तराय-विघ्न को, पकरेइ-करता है, कम्म-कर्म अर्थात् अन्तराय-कर्म। मूलार्थ-जिसने सभी कर्तव्यों का पालन कर लिया है, ऐसी वीतराग आत्मा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय-इन तीनों कर्मों का एक ही समय में क्षय कर देती है। ___टीका-जिस आत्मा ने तृष्णा का नाश कर दिया है वह वीतराग आत्मा क्षीणकषाय-गुण-स्थानवर्ती होकर करणीय कार्यों के यथावत् सम्पादित हो जाने पर कृतकृत्य होती हुई ज्ञान के आच्छादक, दर्शन के आच्छादक और दानादिविषयक विघ्न उपस्थित करने वाले कर्मों का एक ही समय में समूल घात कर देती है। तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने के अनन्तर उक्त ज्ञानावरणादि तीनों घाती कर्मों का यह आत्मा एक ही समय में क्षय कर देती है, क्योंकि ये तीनों कर्म मोहनीय कर्म के आश्रित हैं और जब मोहनीय कर्म को क्षय कर दिया गया, तब इन ज्ञानावरणीयादि कर्मों का क्षय करना अतीव सुकर हो जाता है। इसकी प्रक्रिया इस प्रकार है, यथा-मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर आत्मा अन्तर्मुहूर्त विश्राम लेकर उस अन्तर्मुहूर्त के चरम दो समय में निद्रा, प्रचला और देवगत्यादि नाम-कर्म की प्रकृतियों का क्षय करती है तथा चरम समय में ज्ञानावरणीयादि तीनों कर्मों का क्षय कर देती है। १. कल्प शब्द का छेदन अर्थ भी देखा जाता है 'सामर्थ्य वर्णनायाञ्च छेदने करणे तथा। औपमे अधिवासे च कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ।। तब 'स्वसंकल्पविकल्पना' का राग-द्वेषजन्य स्वसंकल्पों के विनाश की भावना यह अर्थ हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२८२] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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