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पदार्थान्वयः-तओ-तदनन्तर, से-उसको, जायंति-उत्पन्न होते हैं, पओयणाइं-हिंसादि वा विषय सेवनादि प्रयोजन, मोह-मोहरूप, महण्णवम्मि-महार्णव में, निमज्जिउं-डूबने के लिए, सुहेसिणो-सुख की इच्छा करने वाले, दुक्खविणोयणट्ठा-दुःखों को दूर करने के लिए, तप्पच्चयं-तत्प्रत्ययिक, रागी-राग करने वाला, उज्जमए-उद्यम करता है।
मूलार्थ-तदनन्तर उसको विषयादि-सेवन के प्रयोजन उत्पन्न होते हैं। फिर वह रागी पुरुष मोहरूप सागर में डूब जाता है; तथा सुख की इच्छा करने वाला वह दुःखों को दूर करने के लिए विषयादि-संयोगों में ही उद्योग करता है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में रागी पुरुष के लक्षण बताए गए हैं। जब राग-द्वेषयुक्त आत्मा अनेकविध विकारों को प्राप्त होती है, तब उसको विषय-सेवनादि अनेक प्रकार के प्रयोजन उपस्थित होते हैं, जिनके कारण यह मोहरूप सागर में डूबने को तैयार हो जाती है। इसके अतिरिक्त सुख की अभिलाषा और दु:ख के विनोदनार्थ वह विषयादि के लिए ही उद्योग करती है। तात्पर्य यह है कि उसके अन्त:करण में यही विचार दृढ़ हो जाता है कि मैं विषयसेवनादि-क्रियाओं से ही दु:ख से छूट सकती हूं और सुख को प्राप्त हो सकती हूं। परन्तु इस प्रकार के विचारों से वह दु:खों से मुक्त होने के स्थान में मोहरूप सागर में ही डूबती हुई दिखाई देती है। इसलिए मुमुक्षु पुरुषों को चाहिए कि वे विषय-वासना के वशीभूत होकर मोहरूप महासमुद्र में डूबने वाले प्राणी की तरह विषयसेवनादि में ही सुख को न माने, किन्तु इनको मधुमिश्रित विष के तुल्य समझकर इनका त्याग करने में ही उद्यम करें।
अब विरक्त आत्मा के विषय में कहते हैं, यथा- . . विरज्जमाणस्स य इंदियत्था, सद्दाइया तावइयप्पगारा । न तस्स सव्वे वि मणुन्नयं वा, निव्वत्तयंती अमणुन्नयं वा ॥ १०६ ॥
विरज्यमानस्य चेन्द्रियार्थाः, शब्दाद्यास्तावत्प्रकाराः ।
न तस्य सर्वेऽपि मनोज्ञतां वा, निवर्तयन्ति अमनोज्ञतां वा ॥१०६ ॥ पदार्थान्वयः-विरज्जमाणस्स-विरक्त आत्मा को, य-पुनः, इंदियत्था-इन्द्रियों के अर्थ-विषय, सद्दाइया-शब्दादिक, तावइयप्पगारा-सब प्रकार के, तस्सं-उस जीव को, सव्वे वि-सर्व ही, मणुन्नयं-मनोज्ञता, वा-अथवा, अमणुनयं-अमनोज्ञता को, वा-परस्पर समुच्चय में है, न निव्वत्तयंती-उत्पन्न नहीं करते। ___ मूलार्थ-इन्द्रियों के यावन्मात्र शब्दादि जो विषय हैं, वे सर्व ही विरक्त आत्मा के लिए मनोज्ञता का सम्पादन नहीं करते अर्थात् शब्दादि विषयों की प्रियता या अप्रियता का विरक्त-राग-द्वेष रहित-आत्मा पर कुछ भी प्रभाव नहीं होता।
टीका-प्रस्तुत गाथा में विरक्त आत्मा के समक्ष शब्दादि विषयों की अकिंचनता का वर्णन किया
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २८०] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं