SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब इस प्रस्तावित विषय का उपसंहार करते हुए पुनः राग-द्वेष और उसके त्याग का फल वर्णन करते हैं, यथा एविंदियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो । ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेंति किंचि ॥ १०० ॥ एवमिन्द्रियार्थाश्च मनसोऽर्थाः, दुःखस्य हेतवो मनुजस्य रागिणः । ते चैव स्तोकमपि कदापि दुःखं, न वीतरागस्य कुर्वन्ति किञ्चित् ॥ १०० ॥ . पदार्थान्वयः-एवं-इसी प्रकार, इंदियत्था-इन्द्रियों का अर्थ, य-और, मणस्स-मन का, अत्था-अर्थ, दुक्खस्स-दुःख का, हेउं-हेतु, रागिणो-रागी, मणुयस्स-मनुष्य को, ते-वे, अर्थ, थोवं पि-स्तोकमात्र भी, कयाइ-कदापि, दुक्ख-दुःख, वीयरागस्स-वीतराग को, किंचि-किंचिन्मात्र भी, न करेंति-पीड़ित नहीं करते। मूलार्थ-इसी प्रकार मन और इन्द्रियों के विषय रागी पुरुष के दुःख के हेतु होते हैं, और वे ही विषय वीतराग को कदापि किंचिन्मात्र भी दुःख नहीं दे सकते। टीका-इन्द्रियों के विषय रूपादि पदार्थ और मन के विषय संकल्प-विकल्पादि रागी पुरुष के लिए दुःख का कारण बनते हैं अर्थात् राग-द्वेष से युक्त पुरुष को इनके निमित्त से अवश्य ही दु:ख का अनुभव करना पड़ता है, परन्तु जो पुरुष वीतराग अर्थात् राग-द्वेष से रहित है, उस पर इनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। तात्पर्य यह है कि जितने भी पदार्थ हैं, वे सब राग-द्वेष के कारण से ही सुख अथवा दु:ख रूप होते हैं और वास्तव में तो इनमें सुख अथवा दु:ख रूप कोई तत्त्व नहीं है। इसलिए वीतराग पुरुष के समक्ष तो इनमें सुख अथवा दु:ख का कारण बनने की कोई भी शक्ति नहीं। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो इनकी सुख-दु:ख के रूप में कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि वैषयिक सुख अथवा दुःख की मूल कारणता केवल राग और द्वेष में ही विद्यमान है। अत: मुमुक्षु पुरुष को इन्हीं के त्याग का यत्न करना चाहिए। अब इसी विषय को पल्लवित करते हुए फिर कहते हैं, यथान कामभोगा समयं उति, न यावि भोगा विगई उति । जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥ १०१ ॥ न काम-भोगाः समतामुपयन्ति, न चापि भोगा विकृतिमुपयन्ति । यस्तत्प्रद्वेषी च परिग्रही च, स तेषु मोहाद् विकृतिमुपैति ॥ १०१ ॥ पदार्थान्वयः-कामभोगा-काम-भोग, समय-समता-राग-द्वेष के उपशम-को, न उवेंति-प्राप्त नहीं होते-उपशम के कारण नहीं होते, न यावि-न ही, भोगा-काम-भोग, विगइं-विकृति को, उति-प्राप्त होते हैं-विकृत के हेतु हैं, जे-जो, तेसु-उन काम-भोगों में, तप्पओसी-प्रद्वेष करने वाला है, य-और, परिग्गही-परिग्रह से युक्त है, सो-वह जीव, मोहा-मोह से, विगइं-विकृति को, उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २७६ ] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy