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________________ को समाधि की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार जब इन्द्रिय-जन्य विषयों में राग का त्याग कर दिया तो फिर उनमें प्रवृत्ति नहीं होती तथा अप्रिय विषय में द्वेष के त्याग से कषायों की निवृत्ति हो जाती है एवं जब राग और द्वेष की निवृत्ति हो गई तब चित्त की एकाग्रतारूप समाधि की प्राप्ति हो जाती है। तात्पर्य यह है कि मन की आकुलता के कारण राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं, उनके निवृत्त होने से मन में निराकुलता और स्वस्थता आ जाती है। वही समाधि है, इसीलिए समाधि की इच्छा रखने वाला तपस्वीश्रमण अपने मन में प्रिय और अप्रिय विषयों में राग-द्वेष के भावों को कदाचित् भी न आने दे। अब इसी विषय को स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु. मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ २२ ॥ चक्षुषो रूपं ग्रहणं वदन्ति, तद् रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । तद् (रूपं) द्वेषहेतुममनोज्ञमाहुः, समश्च यस्तेषु स वीतरागः ॥ २२ ॥ पदार्थान्वयः-चक्खुस्स-चक्षु को, रूवं-रूप का, गहणं-ग्रहण करने वाला, वयंति-कहते हैं, तं-वह, रागहेउं-राग का हेतु, तु-तो, मणुन्नं-मनोज्ञ, आहु-कहा है, तं-वह, अमणुन्नं-अमनोज्ञ रूप, दोसहेउं-द्वेष का हेतु, आहु-कहा है, य-तथा, जो-जो, तेसु-इन दोनों में, समो-समभाव रखता है, स-वह, वीयरागो-वीतराग है। . मूलार्थ-चक्षु रूप का ग्रहण करता है, रूप यदि सुन्दर है तो वह राग का हेतु हो जाता है और असुन्दर होने पर द्वेष का कारण बन जाता है। जो इन दोनों प्रकार के रूपों में समभाव रखता है वही वीतराग है। टीका-इस गाथा में चक्षु के द्वारा ग्रहण किए गए रूप की सुन्दरता और असुन्दरता को राग-द्वेष का कारण बताते हुए उसमें सम-भाव रखने का उपदेश दिया गया है। सूत्रकार का तात्पर्य यह है कि चक्षु द्वारा जो रूप ग्रहण किया जाता है उसकी मनोहरता राग के उत्पादन का कारण है। रूप की विकृति से द्वेष की उत्पत्ति होती है, परन्तु जो महात्मा इन दोनों प्रकार के अर्थात् सुन्दर और असुन्दर दोनों प्रकार के रूपों को आंखों से देखता हुआ भी अपने अन्त:करण में किसी प्रकार के राग अथवा द्वेष के भाव को नहीं आने देता, अपितु दोनों में सम भाव रखता है वही वीतराग है। कारण यह है कि जब उसने दोनों में समान भाव धारण कर लिया तब उसकी आत्मा में किसी प्रकार के हर्ष अथवा शोक का आविर्भाव नहीं होता, अर्थात् वह इनसे विमुक्त हो जाता है। जिस आत्मा में राग और द्वेष की परिणति विद्यमान है उसको प्रिय पदार्थ से राग और अप्रिय के संयोग से द्वेष का होना स्वाभाविक है, इसलिए चक्षुगृहीत रूप की प्रियता और अप्रियता में सम भाव रखने वाला ही निराकुल अथवा सुखी रहता है जिसको कि दूसरे शब्दों में वीतराग कहते हैं। अब उक्त विषय को फिर से और स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि रूवस्स चक्खं गहणं वयंति, चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउ अमणुन्नमाहु ॥ २३ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २३२] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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