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________________ प्रकल्प का अर्थ है कि प्रायश्चित प्रकल्प अर्थात् प्रकृष्ट कल्प-यतिव्यवहार का जिसमें प्रतिपादन किया हो, वह शास्त्र आचार-प्रकल्प के नाम से प्रसिद्ध है। तात्पर्य यह है कि २८ अध्ययनरूप आचारांगसूत्र को प्राकृत में आचार-प्रकल्प कहा है। उसके २८ अध्ययनों का नामनिर्देश इस प्रकार हैं। यथा-१. शस्त्रपरिज्ञा, २. लोकविजय, ३. शीतोष्णीय, ४. सम्यक्त्व, ५. आवंति, ६. ध्रुव, ७. विमोह, ८. उपधानश्रुत, ९. महापरिज्ञा, १०. पिंडैषणा, ११. शय्या, १२. ईर्या, १३. भाषा, १४. वस्त्रेषणा, १५. पात्रेषणा, १६. अवग्रहप्रतिमा, १६+७=२३. सप्तशतिका, २४. भावना, २५. विमुक्ति, २६. उपघात, २७. अनुपघात, २८. आरोपणा, यह २८ प्रकार का आचार-प्रकल्प कहा गया है। इसके अतिरिक्त समवायांगसूत्र में २८ प्रकार का आचार-प्रकल्प इस प्रकार से वर्णन किया है। यथा-१. एक मास का प्रायश्चित, २. एक मास पांच दिन का प्रायश्चित, ३. एक मास दस दिन का प्रायश्चित। इसी प्रकार पांच-पांच दिन बढ़ाते हुए पांच मास तक कहना चाहिए। इस प्रकार २५ हुए। २७ उपघातक-अनुपघातक, २७. आरोपण और २८. कृत्स्न-सम्पूर्ण, अकृत्सन-असम्पूर्ण। इस विषय का सम्पूर्ण वर्णन निशीथसूत्र के बीसवें उद्देशक से जानना चाहिए। अब फिर कहते हैं - पावसुयपसंगेसु, मोहठाणेसु चेव य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ १९ ॥ : पापश्रुतप्रसंगेषु, मोहस्थानेषु चैव च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ १९ ॥ पदार्थान्वयः-पावसुयपसंगेसु-पापश्रुत के प्रसंग में, य-और, मोहठाणेसु-मोह के स्थानों में, एवं-निश्चय ही, च-पुनः, जे भिक्खू जयई निच्चं-जो भिक्षु सदैव यत्न रखता है, से न अच्छइ मंडले-वह नहीं ठहरता संसार में। मूलार्थ-जो भिक्षु पापश्रुत के प्रसंगों में और मोह के स्थानों में सदा उपयोग रखता है अर्थात् इनको दूर करने का सदैव यत्न करता है, वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता। टीका-शास्त्रकारों ने २९ प्रकार का पाप-श्रुत बताया है। जिसके अभ्यास से जीव की पाप-कर्म में रुचि उत्पन्न हो जाए, उसे पाप-श्रुत कहते हैं। यथा-१. भूकम्पशास्त्र, २. उत्पातशास्त्र, ३. स्वप्नशास्त्र, ४. अन्तरिक्षशास्त्र, ५. अंगस्फुरणशास्त्र, ६. स्वरशास्त्र, ७. व्यंजन, तिल, मसा आदि चिन्ह-शास्त्र, ८. लक्षणशास्त्र, ये सब आठ ही सूत्ररूप, आठ ही वृत्तिरूप और आठ ही वार्तिकरूप, इस प्रकार २४ होते हैं। २५. विकथानुयोग, २६. विद्यानुयोग, २७. मंत्रानुयोग, २८. योगानुयोग और २९. अन्य-तीर्थप्रवृत्ति-अनुयोग। मोह-कर्म के तीस स्थान इस प्रकार से हैं। यथा-१. त्रस जीव को पानी में डुबोकर मारना, २. हस्त आदि से मुख बांधकर मारना, ३. सिर पर चर्म आदि बांधकर मारना, ४. शस्त्रादि से मस्तक का उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २११] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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