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में, जे-जो, भिक्खू-भिक्षु, निच्चं-निरन्तर, जयई-यत्न करता है, से न अच्छइ मंडले-वह संसार में नहीं ठहरता।
मूलार्थ-इक्कीस प्रकार के शबलों अर्थात् दोषों में और बाईस प्रकार के परीषहों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, अर्थात् दोषों के त्यागने और परीषहों के सहन करने में सदैव उद्यत रहता है, वह इस संसार में भ्रमण नहीं करता।
टीका-शास्त्रकार ने २१ शबल-दोष प्रतिपादान किए हैं। अतिचारों के द्वारा चारित्र को कर्बुर करने वाले दोषों को 'शबल' कहते हैं। वे सब क्रियाविशेष ही हैं। तथा प्राकृत में तालव्य के स्थान पर दंती सकार हो जाता है और यहां पर दंती सकार मानकर 'सबल' का बलवान् अर्थ भी हो जाता है अर्थात् २१ प्रकार के बलवान् दोषों के साथ जो क्रियास्थान वर्णन किए गए हैं, उनको सदा के लिए त्याग देना चाहिए। वे २१ दोष निम्नलिखित हैं। यथा-१. हस्तकर्म करना, २. मैथुन का सेवन करना, ३. रात्रि में भोजन करना, ४. आधाकर्मी आहार करना, ५. राजपिंड लेना, ६. मोल लिया हुआ आहार
रना. ७. उधार लिया हआ आहार लेना. ८. उपाश्रय में लाया हआ आहार लेना. ९. निर्बल से छीना हुआ आहार लेना, १०. प्रत्याख्यान करके पुनः पुनः तोड़ देना, ११. छः मास के अन्दर गण से गण संक्रमण करना, १२. मास के अभ्यन्तर तीन पानी के लेप और तीन माया के स्थान का सेवन करना, १३. जानबूझ कर हिंसा करना, १४. जानबूझ कर असत्य बोलना, १५. जानकर अदत्तादान का सेवन करना, १६. जानकर सचित्त मृत्तिकादि पर बैठना, १७. जानकर सचित्त रज वा शिला पर तथा घुण वाले काष्ठ पर बैठना, १८. जानबूझकर बीज, कीड़ी आदि के अण्डों और जाला लगे हुए स्थान पर बैठना, १९. जानबूझ कर कंद, मूल, फल, पुष्प, बीज और हरी आदि का भोजन करना, २०. एक वर्ष के भीतर दस पानी के लेप और दस माया के स्थानों का सेवन करना और २१. शीत जल से हाथ गीले करना अथवा सचित्त जल से गीले भाजन तथा दर्बी आदि से भोजन लेना। भिक्षु को इन २१ प्रकार के शबल दोषों का त्याग कर देना चाहिए। कारण यह है कि इनसे चारित्र में मलिनता आ जाती है। जिनका वर्णन प्रस्तुत सूत्र के दूसरे अध्ययन में आ चुका है।
ऐसे ही २२ प्रकार के परीषहों को भी शांति-पूर्वक सहन करना चाहिए।
सारांश यह है कि जो साधु उक्त २१ प्रकार के शबल दोषों को दूर करने और २२ प्रकार के परीषहों को सहन करने के लिए सदैव तत्पर रहता है, वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता, अर्थात् संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं -
तेवीसइसूयगडेसु, रूवाहिएसु सुरेसु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ १६ ॥
त्रयोविंशतिसूत्रकृतेषु, रूपाधिकेषु सुरेषु च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ १६ ॥ .
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २०८] चरणविही णाम एगतीसइमं अन्झयणं