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________________ व्रतेष्विन्द्रियार्थेषु, समितिषु क्रियासु च । ... यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः-वएसु-व्रतों में, इंदियत्थेसु-इन्द्रियों के अर्थों में, समिईसु-समितियों में, य-और, किरियासु-क्रियाओं में, जे-जो, भिक्खू-भिक्षु, निच्चं-सदैव, जयई-यत्न करता है, से-वह, मंडले-संसार में, न अच्छइ-नहीं ठहरता है। मूलार्थ-पांच व्रतों में और पांच समितियों के पालन में, तथा पांच इन्द्रियों के विषय और पांच अशुभ-क्रियाओं के परित्याग में, जो भिक्षु निरन्तर परिश्रम करता है, वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता, अर्थात् मुक्त हो जाता है। टीका-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये पांच व्रत हैं। शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, ये पांच इन्द्रियार्थ अर्थात् विषय हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और परिष्ठापना, ये पांच समितियां हैं। इसी प्रकार-कायिकी, अधिकरणकी, प्राद्वेषिकी, परितापनिकी और प्राणातिपातकी ये पांचों अशुभ-क्रियाएं हैं। जो साधु उक्त पांच व्रतों और पांच समितियों के सतत सेवन में तथा शब्दादि पांच विषयों और कायिकी आदि पांच अशुभ-क्रियाओं के परित्याग के लिए यतनापूर्वक सावधान रहता है, . अर्थात् इनके सेवन और त्याग के लिए सदा प्रस्तुत रहता है-सावधान रहता है, उसका यह संसार परिभ्रमण मिट जाता है। यहां पर गाथा में 'जयई' क्रिया से निष्पन्न यत्न शब्द का अर्थतः उल्लेख किया है उससे यतना रखना, विवेक रखना, परिश्रम करना और उपयोग रखना आदि अनेक अर्थ ग्रहण किए जाते हैं। जो अर्थ जहां पर उपयुक्त हो, वैसा ही अर्थ वहां पर कर लेना चाहिए तथा जिसके साथ जैसा सम्बन्ध उचित और अभीष्ट हो वैसा भी कर लेना चाहिए। अब फिर इसी विषय में कहते हैं - लेसासु छसु काएसु, छक्के आहारकारणे । - जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ ८ ॥ लेश्यासु षट्सु कायेषु, षट्के आहारकारणे । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ ८ ॥ पदार्थान्वयः-लेसासु-लेश्याओं में, छसु काएसु-छ: कायों में, छक्के-छ: प्रकार के, आहारकारणे-आहार के कारणों में, जे-जो, भिक्खू-भिक्षु, निच्चं-सदैव, जयई-यत्न करता है, से-वह, मंडले-संसार में, न अच्छइ-नहीं ठहरता। ___मूलार्थ-छः लेश्या, छः काय और षट् प्रकार के आहार-कारणों में जो साधु सदैव यल-उपयोग रखता है, वह इस संसार में नहीं ठहरता। टीका-जीव के अध्यवसायरूप परिणामविशेष को लेश्या कहते हैं। वे लेश्याएं कृष्ण, नील आदि 'उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २०१] चरणविही णाम एगतीसइमं अन्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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