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________________ आगम स्वाध्याय विधि जैन आगमों के स्वाध्याय की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। वर्तमान-काल में आगम लिपिबद्ध हो चुके हैं। इन आगमों को पढ़ने के लिए कौन साधक योग्य है और उसकी पात्रता कैसे तैयार की जा सकती है इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है - ___आगम ज्ञान को सूत्रबद्ध करने का सबसे प्रमुख लाभ यह हुआ कि उसमें एक क्रम एवं सुरक्षितता आ गई लेकिन उसमें एक कमी यह रह गई कि शब्दों के पीछे जो भाव था उसे शब्दों में पूर्णतया अभिव्यक्त करना संभव नहीं था। जब तक आगम-ज्ञान गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा आ रहा था तब तक वह ज्ञान पूर्ण रूप से जीवन्त था। यह ऐसा था जैसे भूमि में बीज को बोना। गुरु पात्रता देखकर ज्ञान के बीज बो देते थे, और वही ज्ञान फिर शिष्य के जीवन में वैराग्य, चित्त-स्थैर्य, आत्म-परिणामों में सरलता और शांति बनकर उभरता था। आगम-ज्ञान को लिपिबद्ध करने के पश्चात् वह प्रत्यक्ष न रहकर किंचित् परोक्ष हो गया। उस लिपिबद्ध सूत्र को पुनः प्राणवान बनाने के लिए किसी आत्म-ज्ञानी सद्गुरु की आवश्यकता होती है। __ आत्म-ज्ञानी सद्गुरु के मुख से पुनः वे सूत्र जीवन्त हो उठते हैं। ऐसे आत्म-ज्ञानी सद्गुरु जब कभी शिष्यों में पात्रता की कमी देखते हैं तो कुछ उपायों के माध्यम से उस पात्रता को विकसित करते हैं। यही उपाय पूर्व में भी सहयोग के रूप में गुरुजनों द्वारा प्रयुक्त होते थे, हम उन्हीं उपायों का विवरण नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं - ___ तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित शासन की प्रभावना में अनेकानेक दिव्य शक्तियों का सहयोग भी उल्लेखनीय रहा है। जैसे प्रभु पार्श्वनाथ की शासन रक्षिका देवी माता पद्मावती का सहयोग शासन प्रभावना में प्रत्यक्ष होता है। उसी प्रकार आदिनाथ भगवान की शासन रक्षिका देवी माता चक्रेश्वरी देवी का सहयोग भी उल्लेखनीय है। ___ इन सभी शासन-देवों ने हमारे अनेक महान् आचार्यों को समय-समय पर सहयोग दिया है। यदि आगम अध्ययन किसी सद्गुरु की नेश्राय में किया जाए एवं उनकी आज्ञानुसार शासन रक्षक देव का ध्यान किया जाए तब वह हमें आगम पढ़ने में अत्यन्त सहयोगी हो सकता है। ध्यान एवं उपासना की विधि गुरुगम से जानने योग्य है। संक्षेप में हम यहां पर इतना ही कह सकते हैं कि तीर्थंकरों की भक्ति से ही वे प्रसन्न होते हैं। आगम पढ़ने में चित्त स्थैर्य का अपना महत्व है और चित्त स्थैर्य के लिए योग, आसन, प्राणायाम (xi)
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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