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________________ के परित्याग से इन्द्रियों का निग्रह और काम सम्बन्धी उत्तेजना शान्त रहती है। उसके शान्त होने से आत्मा की बहिर्मुखता दूर होती है। अब कायक्लेशनामक तप के विषय में कहते हैं - - ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिज्जति, कायकिलेसं तमाहियं ॥ २७ ॥ स्थानानि वीरासनादीनि, जीवस्य तु सुखावहानि । उग्राणि यथा धार्यन्ते, कायक्लेशस्तमाख्यातः ॥ २७ ॥ पदार्थान्वयः-ठाणा-स्थान-कायस्थिति के भेद, वीरासणाईया-वीर-आसन आदि, जीवस्स-जीव को, सुहावहा-सुख को देने वाले, उ-अवधारणार्थक है, उग्गा-उग्र-उत्कट, जहा-जैसे, धरिजंति-धारण किए जाते हैं, कायकिलेसं-कायक्लेश, तं-वह, आहियं-कहा गया है। मूलार्थ-जीव को सुख देने वाले, उग्र अर्थात् उत्कट जो वीरासनादि तथा स्थान अर्थात् कायस्थिति के भेद हैं, उनको धारण करना काय-क्लेश है। ___टीका-इस तप में काया को अप्रमत्त रखने के लिए वीरादि आसनों का प्रयोग किया जाता है। जब तक वीरादि आसनों के द्वारा समाधि लगाकर काया को क्लेशित न किया जाए अर्थात् कसा न जाए, तब तक काया का निग्रह अर्थात् अप्रमत्त होना कठिन होता है। इसलिए साधक पुरुष को चाहिए कि वह उक्त आसनादि के द्वारा अपने शरीर को संयत करने का अभ्यास करे। वीरासन-कोई पुरुष अपने दोनों पैर भूमि पर रखकर किसी चौकी आदि पर बैठे और फिर उसके नीचे से वह पीठ उठा लिया जाए, उसके उठा लेने पर भी वह उसी प्रकार ध्यानारूढ़ होकर बैठा रहे तो उसको वीरासन कहते हैं। आदि शब्द से गोदुह-आसन, पद्मासन और उत्कट आदि आसनों को जानना चाहिए। उपलक्षण से केशलुञ्चन आदि क्रियाएं भी इसी तप के अन्तर्गत समझी जाती हैं। शुभ कर्मों के बन्ध का हेतु होने और कर्मों की निर्जरा का कारण होने से इनको सुखप्रद कहा है, एवं यह तप आत्मा के लिए जितना सुखप्रद है उतना ही इसका अनुष्ठान कठिन है। अतएव इनका उपयोग दृढ़-निश्चयी आत्मार्थी मुनि ही कर सकते हैं। अन्य दर्शनों में इस तप का हठयोग में समावेश किया गया है। 'ठाणा', 'उग्गा' इन दोनों में 'सुप्' का व्यत्यय किया गया है। . अब प्रतिसंलीनता के विषय में कहते हैं - . एगंतमणावाए, इत्थी-पसुविवज्जिए । सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ॥ २८ ॥ एकान्तेऽनापाते, स्त्री-पशुविवर्जिते । शयनासनसेवनया, विविक्तशयनासनम् ॥ २८ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१८९] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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