SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निदंसिए - दृष्टान्तों से वर्णन किया, उवदंसिए - उपदेश किया, त्ति बेमि - इस प्रकार मैं कहता हूं, इति सम्मत्त परक्कमे समत्ते - यह सम्यक्त्व - पराक्रम - अध्ययन समाप्त हुआ। मूलार्थ - इस सम्यक्त्व - पराक्रम- अध्ययन का अर्थ श्रमण भगवान महावीर ने प्रतिपादन किया, प्रज्ञापित किया, निरूपण किया, दर्शाया, दृष्टान्तों के द्वारा वर्णन किया। इस प्रकार मैं कहता हूं। टीका- प्रस्तुत अध्ययन की समाप्ति करते हुए आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार सम्यक्त्व - पराक्रम नाम के अध्ययन का अर्थ श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने कहा है, दिखाया है और उपदेश किया है। तात्पर्य यह है कि सामान्य और विशेष रूप से प्रतिपादन किया, हेतुफलादि के प्रकाशन से अर्थात् प्रकर्षज्ञापन से प्रज्ञापित किया, स्वरूप कथन से प्ररूपित किया, नानाविध भेद-दर्शन से वर्णन किया और दृष्टान्त, उपनय आदि के द्वारा उपदिष्ट किया इत्यादि । श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! जिस प्रकार मैंने भगवान् महावीर स्वामी से श्रवण किया है उसी प्रकार मैंने तुम से कहा है । तात्पर्य यह है कि इस विषय में मेरी निज बुद्धि की कोई कल्पना नहीं है। एकोनत्रिंशत्तमाध्ययनं संपूर्णम् नोट - इन ७३ प्रश्नों का न्यूनाधिक रूप से श्री व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ) सूत्र में भी उल्लेख आता है जो कि इस प्रकार है- 'अह भंते! संवेगे, णिव्वेए, गुरुसाहम्मियसुस्सूसणया, आलोयणया, निंदणया, गरहणया, खमावणया, सुयसहायता, विउसमणया, भावे अप्पडिबद्धया, विणिवट्टणया, विवित्तसयणासणसेवणया, सोइदियसंवर जाव फासिंदियसंवरे, जोगपच्चक्खाणे, सरीरपच्चक्खाणे, कसायपच्चक्खाणे, संभोगपच्चक्खाणे, उवहिपच्चक्खाणे, भत्तपच्चक्खाणे, खमा, विरागया, भावसच्चे, जोगसच्चे, करणसच्चे, मणसमाहरणया, वयसमाहरणया, कायसमाहरणया, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे, नाणसंपन्नया, दंसणसंपन्नया, चरित्तसंपन्नया, वेदणअहियासणया, मारणंतिय-अहियासणया एए णं भंते! पया किं पज्जवसाणफला पण्णत्ता? समणाउसो ! गोयमा ! संवेगे, निव्वेगे जाव मारणंतिय अहियासणया, एए णं सिद्धिपज्जवसाणफला पण्णत्ता समणाउसो ! सेवं भंते ! २ जाव विहरति । [ शत० १७ उ० ३ सू० ६०० ] उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १७०] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy