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से भोगने योग्य कर्माणुओं का आत्मा के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसे क्रोध वेदनीय कर्म कहते हैं।
अब मान के सम्बन्ध में कहते हैं - माणविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
माणविजएणं मद्दवं जणयइ। माणवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ। पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ ६८ ॥
मानविजयेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? । मानविजयेन मार्दवं जनयति। मानवेदनीयं कर्म न बध्नाति। पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ६८ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, माणविजएणं-मान की विजय से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है, माणविजएणं-मान पर विजय से, मद्दवं-मृदुता गुण की, जणयइ-प्राप्ति करता है, माणवेयणिज्जं कम्म-मानवेदनीय कर्म का, न बंधइ-बन्ध नहीं करता, च-और, पुव्वबद्धं-पूर्वबद्ध कर्मों की, निज्जरेइ-निर्जरा करता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! मानविजय से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है?
उत्तर-हे शिष्य ! मान-विजय से इस जीव को मार्दव-मृदुता गुण की प्राप्ति होती है, फिर मार्दव-गुण-संयुक्त जीव मानवदेनीय अर्थात् मानजनित कर्मों का बंध नहीं करता तथा पूर्वबद्ध कमों का क्षय कर देता है।
- टीका-गर्व अथवा अहंकार को मान कहते हैं। मान को जीतने से जीव मृदुस्वभाव अर्थात् कोमल-स्वभाव वाला हो जाता है। इस मृदुता गुण को प्राप्त करने वाला जीव मानजन्य कर्मों का बन्ध नहीं करता, अर्थात् मान करने से जिन कर्मों का बन्ध होता है वह उसका दूर हो जाता है और इसके अतिरिक्त वह पूर्व में बांधे हुए कर्मों का भी क्षय कर देता है।
अब माया के विषय में कहते हैं - मायाविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
मायाविजएणं अज्जवं जणयइ। मायावेयणिज्जं कम्मं न बंधइ। पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ ६९ ॥
मायाविजयेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? मायाविजयेनार्जवं जनयति। मायावेदनीयं कर्म न बध्नाति। पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ६९ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-भगवन्, मायाविजएणं-माया पर विजय करने से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है, मायाविजएणं-माया की विजय से, अज्जवं-आर्जव अर्थात् सरलता को, जणयइ-प्राप्त करता है, मायावेयणिज्ज-मायावेदनीय, कम्म-कर्म को, न बंधइ-नहीं बांधता, च-और, पुव्वबद्धं-पूर्वबद्ध का, निज्जरेइ-क्षय कर देता है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १६१] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं