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________________ पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ६३ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन, चक्खिंदियनिग्गहेणं-चक्षु-इन्द्रिय के निग्रह से, जीव-जीव, किं जणयइ-क्या प्राप्त करता है? चक्खिंदियनिग्गहेणं-चक्षु-इन्द्रिय के निग्रह से, मणुन्नामणुन्नेसुमनोज्ञामनोज्ञ, रूवेसु-रूपों में, रागदोसनिग्गह-राग-द्वेष के निग्रह को, जणयइ-प्राप्त करता है, च-फिर, तप्पच्चइयं-तन्निमित्तक, कम्म-कर्म को, न बंधइ-नहीं बांधता, पुव्वबद्धं-पूर्वसंचित कर्मों की, निज्जरेइ-निर्जरा कर देता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! चक्षु-इन्द्रिय के निग्रह से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर-चक्षु-इन्द्रिय के निग्रह से प्रिय और अप्रिय रूप में राग-द्वेष का निग्रह हो जाता है। फिर रागद्वेष-निमित्तक कर्मों का बन्ध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा अर्थात् क्षय हो जाता है। टीका-जब प्रिय और अप्रिय रूप के देखने से अन्त:करण में राग-द्वेष के भाव उत्पन्न नहीं होते, तब रूपनिमित्तक कर्मों का भी वह जीव बन्ध नहीं करता और समपरिणामी होने से पूर्वसंचित कर्मों का भी विनाश कर देता है। अब घ्राणेन्द्रिय के निग्रह के विषय में कहते हैं - घाणिंदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे किं जणयड ? घाणिंदियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु गंधेसु रागदोस-निग्गहं जणयइ। तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ। पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ ६४ ॥.. ____घ्राणेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ? . घ्राणेन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु गन्धेषु रागद्वेषनिग्रहं जनयति। तत्प्रत्ययिकं कर्म न बध्नाति। पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ६४ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, घाणिंदियनिग्गहेणं-घ्राण-इन्द्रिय के निग्रह से, जीवे-जीव, किं जणयइ-क्या उपार्जन करता है, घाणिंदियनिग्गहेणं-घ्राण-इन्द्रिय के निग्रह से, मणुनामणुन्नेसुमनोज्ञामनोज्ञ, गंधेसु-गंधों में, रागदोस-निग्गह-रागद्वेष के निग्रह को, जणयइ-प्राप्त करता है, तप्पच्चइयं-तत्प्रत्ययिक-तन्निमित्तक, कम्म-कर्म को, न बंधइ-नहीं बांधता, च-और, पुव्वबद्धं-पूर्व बांधे हुए को, निज्जरेइ-क्षय कर देता है। ___मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! घ्राण-इन्द्रिय के निग्रह से किस गुण की प्राप्ति होती है? उत्तर-घ्राण-इन्द्रिय के निग्रह से प्रिय व अप्रिय गन्ध में जो राग-द्वेष के भाव उत्पन्न होते .. हैं उनका निग्रह हो जाता है और उस राग-द्वेष के निमित्त से जो कर्म-बन्ध होना था वह नहीं होता, तथा पूर्वसंचित कर्मों का क्षय हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१५८] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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