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लेने से वह संसार के हेतुभूत अर्थात् जन्म-मरण परम्परा के कारणभूत मिथ्यात्व का सर्वथा नाश कर देता है। उसका यह ज्ञान - दर्शन सम्बन्धी प्रकाश फिर बुझता नहीं। वह उत्कृष्ट ज्ञान को तो उसी भव में और अधिक से अधिक तीसरे भव में तो केवल - ज्ञान को भी अवश्य प्राप्त कर लेता है तथा अनुत्तर -ज्ञान-दर्शन से अपनी आत्मा को जोड़ता हुआ, अर्थात् हर समय पर अपर पदार्थों में उपयोग का संघटन करता हुआ और सम्यक् प्रकार से आत्मा का आत्मा के द्वारा अनुप्रेक्षण करता हुआ भवस्थ केवली होकर विचरता है।
अब चारित्र - सम्पन्नता के विषय में कहते हैं
चरित्तसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
चरित्तसंपन्नयाए णं सेलेसीभावं जणय । सेलेसिं पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि कम्मंसे खवे । तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वायइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥ ६१ ॥
चारित्र सम्पन्नतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
चारित्रसम्पन्नतया शैलेशीभावं जनयति । शैलेशीं प्रतिपन्नश्चाऽनगारश्चतुरः कर्माशान् क्षपयति । ततः पश्चात्सिध्यति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति ॥ ६१ ॥
पदार्थान्वयः - चरित्तसंपन्नयाए णं- चारित्र - सम्पन्नता से, भंते - हे पूज्य, जीवे - जीव, किं जणय - किस गुण को प्राप्त करता है, चरित्तसंपन्नयाए णं - चारित्र - सम्पन्नता से, सेलेसीभावं - मेरु के समान स्थिरता को, जणयइ - प्राप्त करता है, सेलेसिं-शैलेशीभाव को, पडिवन्ने - प्राप्त हुआ, अणगारे - अनगार, चत्तारि - चार, कम्मंसे - कर्मांशों का, खवेइड- क्षय कर देता है, तओ पच्छा - तत्पश्चात्, सिज्झइ - सिद्ध होता है, बुज्झइ - बुद्ध होता है, मुच्चइ - बन्धन से मुक्त हो जाता है, परिनिव्वायइ - शीतलीभूत होता है, सव्वदुक्खाणं- सर्व दुःखों का अंतं करेइ - अन्त कर देता है।
मूलार्थ- प्रश्न-हे भगवन् ! चारित्र - सम्पन्नता से इस जीव को क्या फल प्राप्त होता है ? उत्तर - हे शिष्य ! चारित्र - सम्पन्नता से इस जीव को शैलेशीभाव की प्राप्ति होती है । शैलेशी - भाव- प्रतिपन्न जीव चारों अघाती कर्माशों को क्षय कर देता है, तदनन्तर वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर परम शांति को प्राप्त करता हुआ सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर देता है।
टीका - शैल का अर्थ है पर्वत, उसका ईश अर्थात् स्वामी, शैलेश कहलाता है। तात्पर्य यह है कि शैलेश का अर्थ मेरु पर्वत है, उसके समान योगों के निरोध करने में जो आत्मा स्थिरता अर्थात् धैर्य रखने वाली हो उसको भी शैलेश कहते हैं। इस अवस्था की प्राप्ति ही शैलेशीभाव है, उसको प्राप्त होने वाला जीव वेदनीयादि चारों अघाति - कर्मप्रकृतियों का क्षय करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परम निर्वाणपद को प्राप्त होता हुआ सर्व प्रकार के दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति कर देता है । सारांश यह है क़ि पूर्णरूप से चारित्र की प्राप्ति करने वाला जीव तीनों योगों का विधि-पूर्वक निरोध करता हुआ मेरु की तरह
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१५६ ] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं