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________________ विवित्तसयणासणयाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? विवित्तसयणासणयाएणं चरित्तगुत्तिं जणयइ। चरित्तगुत्ते य णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एगंतरए मोक्खभावपडिवन्ने अट्ठविहकम्मगंठिं निज्जरेइ ॥ ३१ ॥ विविक्तशयनासनतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? । विविक्तशयनासनतया चारित्रगुप्तिं जनयति। गुप्तचारित्रो हि जीवो विविक्ता हारो, दृढचारित्र एकान्तरतो मोक्षभावप्रतिपन्नोऽष्टविधकर्मग्रन्थिं निर्जरयति ॥ ३१ ॥ ___पदार्थान्वयः-विवित्तसयणासणयाएणं-विविक्त शयनासन के सेवन से, भंते-हे भगवन्, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण की प्राप्ति करता है, विवित्त-सयणासणयाएणं-विविक्त-शयनासन से, चरित्तगुत्तिं-चारित्रगुप्ति को, जणयइ-उत्पन्न करता है, य-पुनः, चरित्तगुत्ते-चारित्र से गुप्त हुआ, णं-वाक्यालङ्कार में, जीवे-जीव, विवित्ताहारे-विकृति-रहित आहार करने वाला, दढचरित्ते-दृढ़चारित्रवान्, एगंतरए-एकान्तसेवी, मोक्खभावपडिवन्ने-मोक्ष को प्राप्त करने वाला, अट्ठविहं-आठ प्रकार की, कम्मगंठिं-कर्मग्रन्थि को, निज्जरेइ-निर्जरा करता है। ___मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! विविक्त शयनासन के सेवन से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है? उत्तर-हे भद्र ! विविक्त-शयनासन से चारित्रगुप्ति की प्राप्ति होती है। चारित्रगुप्ति को प्राप्त हुआ जीव विविक्ताहारसेवी, दृढ़चारित्रवान्, एकान्तप्रिय और मोक्ष को प्राप्त करने वाला होता हुआ आठ प्रकार की कर्मग्रन्थियों को तोड़ देता है, अर्थात् आठों कर्मों के बन्धनों को तोड़कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। टीका-स्त्री, पशु और नपुंसक आदि से रहित जो स्थान है उसे विविक्त स्थान कहते हैं, अर्थात् जहां पर स्त्री, पशु और नपुंसक आदि निवास न करते हों ऐसे स्थान में निवास करने वाला जीव किस फल को प्राप्त करता है? यह शिष्य का प्रश्न है। इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि ऐसे स्थान के सेवन से चारित्र की रक्षा होती है और चारित्र के संरक्षित होने पर वह जीव विकृत आहार का त्यागी, शुद्ध चारित्र का धारक और एकान्तसेवी होता हुआ अष्टविध कर्मों का नाश करके मोक्ष-पद को प्राप्त कर लेता है। जो पदार्थ अपने प्रथम रस को छोड़कर अन्य रस को प्राप्त हो चुका है उसे विकृत या विकृति कहते हैं तथा चित्त में विकार उत्पन्न करने वाले जो पदार्थ हैं उनको भी विकृति कहते हैं। अतः शास्त्रकारों ने दुग्ध, दधि, नवनीत और घृत आदि को भी विकृति में परिगणित किया है। जिस पुरुष ने इन विकृतियों का त्याग कर दिया है उसे विविक्ताहारी कहते हैं। तथा चारित्र-गुप्त शब्द 'गुप्तचारित्र' के अर्थ में है। केवल प्राकृत के कारण गुप्त शब्द का-परनिपात हुआ है। अब विनिवर्तना-निवृत्ति के विषय में कहते हैं - विणियट्टणयाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? विणियट्टणयाएणं पावकम्माणं अकरणयाए अब्भुठेइ। पुव्वबद्धाणं च निज्जरणयाए पावं नियत्तेइ। तओ पच्छा चाउरतं संसारकंतारं वीइवयइ ॥३२॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१३१] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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