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________________ अब अनुप्रेक्षा के फल के विषय में कहते हैं - अणुप्पेहाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? अणुप्पेहाएणं आउयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ। दीहकालट्ठिइयाओ हस्सकालट्ठिइयाओ पकरेइ। तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ। बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरे।। आउयं च णं कम्मं सिया बंधइ, सिया नो बंधइ। असायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उवचिणाइ। अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकांतारं खिप्पामेव वीइवयइ ॥ २२ ॥ अनुप्रेक्षया भदन्त ! जीवः कि जनयति ? अनुप्रेक्षयाऽऽयुर्वर्जा सप्तकर्मप्रकृतीर्गाढबन्धनबद्धाः शिथिलबन्धनबद्धाः प्रकरोति। दीर्घकालस्थितिका ह्रस्वकालस्थितिकाः प्रकरोति। तीव्रानुभावा मन्दानुभावाः प्रकरोति। बहुप्रदेशाग्रा अल्पप्रदेशाग्राः प्रकरोति। आयुः कर्म च स्याद्बध्नाति स्यान्न बध्नाति। आशातावेदनीयञ्च कर्म • नो भूयोभूय उपचिनोति। अनादिकञ्चाऽनवदनं दीर्घाद्धवं चतुरन्तं संसारकान्तारं क्षिप्रमेव व्यतिव्रजति ॥ २२ ॥ ... ' पदार्थान्वयः-भंते-हे. भगवन्, अणुप्पेहाएणं-अनुप्रेक्षा से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण की प्राप्ति करता है, अणुप्पेहाएणं-अनुप्रेक्षा से, आउयवज्जाओ-आयुकर्म को वर्ज कर, सत्तकम्मप्पगडीओ-सातों कर्म-प्रकृतियां जो, धणिय-गाढ़े, बंधण-बंधनों से, बद्धाओ-बांधी हुई थी, सिढिल-शिथिल, बंधणबद्धाओ-बन्धनों से बंधी हुई, पकरेइ-करता है, दीहकाल-दीर्घ काल, ट्ठिइयाओ-स्थिति से, हस्सकाल-ह्रस्व काल की, ट्ठिइयाओ-स्थिति वाली, पकरेइ-करता है, तिव्वाणुभावाओ-तीव्रानुभाव से, मंदाणुभावाओ-मंद भाव वाली, पकरेइ-करता है, बहुपएसग्गाओबहुप्रदेश वाली कर्म स्थिति को, अप्पपएसग्गाओ-अल्प प्रदेश वाली, पकरेइ-करता है, च-फिर, आउयं-आयुष्य, कम्म-कर्म को, सिया-कदाचित, बंधइ-बांधता है, सिया-कदाचित्, नो बंधइ-नहीं भी बांधता, च-तथा, असायावेयणिज्ज-असातावेदनीय, कम्म-कर्म को, नो-नहीं, भुज्जो भुज्जो-बारम्बार, उवचिणाइ-एकत्रित करता है, च-अन्य कर्मों की अशुभ प्रकृतियों को भी, अणाइयं-अनादि, अणवदग्गं-अनन्त, दीहमद्धं-दीर्घ मार्ग वाला, चाउरतं-चार गति रूप, संसारकांतारं-संसार रूप कान्तार जंगल को, खिप्पामेव-शीघ्र ही, वीइवयइ-व्यतिक्रम कर जाता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भदन्त ! अनुप्रेक्षा से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर-हे भद्र ! अनुप्रेक्षा से (तत्त्व-चिन्तन से) जीव आयुकर्म को त्यागकर अन्य गाढ़े बन्धनों से बांधी हुई सात कर्मों की प्रकृतियों को शिथिल बन्धनों वाली कर देता है, और यदि वे लम्बे काल की स्थिति वाली हों तो उन्हें अल्पकाल की स्थिति वाली बना देता है, तथा यदि वे तीव्र अनुभाग रस वाली हों तो उनको मन्द रसवाली बना डालता है। एवं यदि बहुप्रदेशी हों उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १२३] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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