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________________ उत्तर-हे शिष्य ! प्रत्याख्यान से जीव आस्रव-द्वारों को रोक देता है, तथा प्रत्याख्यान से इच्छाओं का निरोध करता है, फिर इच्छा-निरोध को प्राप्त हुआ जीव सर्व द्रव्यों में तृष्णा-रहित होकर परम शांति में विचरता है। टीका-"प्रत्याख्यान अर्थात् मूलगुण वा उत्तरगुणरूप प्रत्याख्यान से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है? शिष्य के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि प्रत्याख्यान करने से आश्रव-द्वारों का अर्थात् कर्माणुओं के आने के सभी मार्गों का निरोध होता है तथा प्रत्याख्यान से इच्छाओं का निरोध होता है। इच्छा-निरोध होने से यह जीव सर्व द्रव्यों-पदार्थों में तृष्णारहित हो जाता है और तृष्णारहित होने से वह परमशांति को प्राप्त होता हुआ विचरता है। तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु का प्रत्याख्यान (त्याग-नियम या प्रतिज्ञा) किया जाता है, फिर उस वस्तु को प्राप्त करने, अथवा प्राप्त हुई वस्तु का उपभोग करने की इच्छा नहीं होती। इस प्रकार इच्छा-निरोध से इस जीव की समस्त पदार्थों पर से तृष्णा उठ जाती है और जब तृष्णा उठ गई तो बाह्य और आभ्यन्तर के सन्तापों से रहित होकर साधक परम शांति में विचरण करता है। अब स्तुति-मंगल-पाठ के फल के विषय में कहते हैं, यथा - थयथइमंगलेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? थय-थुइमंगलेणं-नाण-दसण-चरित्त-बोहिलाभं जणयइ। नाण-दसणचरित्त- बोहिलाभसंपन्ने य णं जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तियं आराहणं आराहेइ ॥ १४ ॥ स्तवस्तुतिमङ्गलेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ?। स्तव-स्तुति-मङ्गलेन ज्ञान-दर्शन-चारित्र-बोधिलाभं जनयति। ज्ञान-दर्शनचारित्रबोधि-लाभसम्पन्नश्च जीवोऽन्तक्रियां कल्पविमानोत्पत्तिकामाराधनामाराध्नोति ॥ १४ ॥ पदार्थान्वयः-थय-थुइ-स्तव-स्तुति, मंगलेणं-मंगल से, भंते-हे पूज्य, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है? थयथुइ-स्तव-स्तुति, मंगलेणं-मंगल से, नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रूप बोधिलाभ का, जणयइ-उपार्जन करता है, नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपन्ने-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रूप बोधिलाभ से संपन्न, जीवे-जीव, अंतकिरियं-अन्त-क्रिया वा, कप्पविमाणोववत्तियं-कल्पविमानोत्पत्ति की, आराहणं-आराधना का, आराहेइ-आराधन करता है। ___ मूलार्थ-(प्रश्न)-हे भगवन् ! स्तव-स्तुति-मंगल पाठ से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है? उत्तर-स्तव-स्तुति मंगल-पाठ से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप बोधिलाभ को प्राप्त करता है, फिर ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप बोधिलाभ को प्राप्त करने वाला जीव, अंतक्रिया वा कल्पविमानोत्पत्ति को प्राप्त करता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [११६] सम्पत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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