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में, उवउत्ते-उपयुक्त, अपुहत्ते-पृथक्त्व से रहित, सुप्पणिहिए-भली प्रकार से समाधियुक्त होकर संयममार्ग में, विहरइ-विचरता है।
मूलार्थ-(प्रश्न)-हे भगवन् ! प्रतिक्रमण से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है?
उत्तर-हे शिष्य ! प्रतिक्रमण से जीव व्रतों के छिद्रों को ढांपता है, अर्थात् ग्रहण किए हुए व्रतों को दोषों से बचाता है, फिर शुद्ध व्रतधारी होकर आश्रवों को रोकता हुआ आठ प्रवचन-माताओं में सावधान हो जाता है और विशुद्ध चारित्र को प्राप्त करके उनसे अलग न होता हुआ समाधिपूर्वक संयम-मार्ग में विचरता है। ____टीका-प्रस्तुत सूत्र में प्रतिक्रमण नाम के चतुर्थ आवश्यक के फल का वर्णन किया गया है। शिष्य पूछता है कि भगवन् ! प्रतिक्रमण का क्या फल है?
उत्तर में गुरु प्रतिक्रमण का फल बताते हुए कहते हैं कि प्रतिक्रमण से यह जीव ग्रहण किए हुए अहिंसादि व्रतों में अतिचाररूप जो छिद्र हैं उनको ढांपने का उद्योग करता है, अर्थात् व्रतों में लगने वाले अतिचारादि दोषों को दूर करता है। इस प्रकार व्रतों को अतिचार आदि दोषों से रहित करके वह अपने चारित्र को शबल अर्थात् कलुषित नहीं होने देता। शुद्ध-चारित्रयुक्त होकर आस्रव-द्वारों को रोकता हुआ पाप के मार्गों का निरोध करता हुआ, आठ प्रवचन-माताओं के आराधन में सावधान हो जाता है और उनसे पृथक् न होकर संयम-मार्ग में समाहित चित्त होकर विचरता है। आठ प्रवचन-माताओं का वर्णन पीछे आ चुका है।
प्रतिक्रमण का अर्थ है पीछे हटना, अर्थात् सावध-प्रवृत्ति में जितने आगे बढ़े थे उतने ही पीछे हट जाना। यह प्रतिक्रमण २२ तीर्थंकरों के समय में तो दोष के लगने पर ही किया जाता था, परन्तु प्रथम और चरमतीर्थंकर के समय में तो दोष लगे अथवा न लगे, प्रतिक्रमण करने का तो नित्य विधान है।
इस प्रकार चतुर्थ आवश्यक का फल बताया गया है, अब पांचवें कायोत्सर्ग नाम के आवश्यक के विषय में कहते हैं -
काउस्सग्गेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? '
काउस्सग्गेणं तीयपडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ। विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए ओहरियभरुव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ ॥ १२ ॥
कायोत्सर्गेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
कायोत्सर्गेणातीतप्रत्युत्पन्नं प्रायश्चित्तं विशोधयति। विशुद्धप्रायश्चित्तश्च जीवो निवृतहृदयोऽपहृतभार इव भारवहः प्रशस्त-ध्यानोपगतः सुखं सुखेन विहरति ॥ १२ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे पूज्य, काउस्सग्गेणं-कायोत्सर्ग से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण १. 'प्रतिक्रमणेन अपराधेभ्यः प्रदीपनिवर्तनात्मकेन' इति वृत्तिकारः।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [११४] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं